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ग्रन्थमाला-सम्पादकोंका वक्तव्य माणिकचन्द्र दि० जैन ग्रन्थमालाके इस नये पुष्पको पाठकोंके हाथ सौंपते हमें आज हर्ष और विषादकी मिश्रित भावनाका अनुभव हो रहा है । विषादका कारण यह है कि इस बीच ग्रन्थमालाकी आदि-प्रबन्धकारिणी समितिके सदस्योंमें-से आज कोई भी हमारे साथ नहीं बचा। विक्रम संवत् १९७२ को बात है जब "स्वर्गीय दानवीर सेठ माणिकचन्द्र हीराचन्दजी जे० पी० के कृती नामको स्मरण रखनेके लिए निश्चय किया गया कि उनके नामसे एक ग्रन्थमाला निकाली जाये, जिसमें संस्कृत और प्राकृतके प्राचीन ग्रन्थोंके प्रकाशित करनेका प्रबन्ध किया जाये, क्योंकि यह कार्य सेठजीको बहुत प्रिय था।" उस समय ग्रन्थमालाकी जो प्रबन्धकारिणी समिति बनी, उसके ग्यारह सम्मान्य सदस्य थे : सर सेठ हुकुमचन्दजी, सेठ कल्याणमलजी, सेठ कस्तूरचन्दजी, सेठ सुखानन्दजी, सेठ हीराचन्द नेमिचन्दजी, श्री लल्लूभाई प्रेमानन्द परीख, सेठ ठाकुरदास भगवानदास जौहरी, ब्र० शीतलप्रसादजी, पं० धन्नालालजी काशलीवाल, पं० खूबचन्दजी शास्त्री
और पं० नाथूरामजी प्रेमी ( मन्त्री )। इस समिति-द्वारा अपील किये जानेपर लगभग सौ दाताओंका दान प्राप्त हुआ और रु० ७६८७।३) एकत्र हुए। इनमें सबसे बड़ा दान था रु० १००१) श्रीमान् सेठ हुकुमचन्दजीका । अन्य दो दाताओं में से प्रत्येकने रु० ५०१) प्रदान किये, दोने रु० २५१), एकने २०१), छहने १०१), बारहने ५१), छहने २५), तीनने २१), पन्द्रहने १५), सोलहने ११) और शेषने इससे कम, जिसमें एक व्यक्तिके आठ आने ॥) का दान भी सम्मिलित है। इस द्रव्यमें-से रु० ५००) सेठ माणिकचन्दजीकी मूर्ति बनवाने में लगाये गये और शेष ग्रन्थमाला चलाने में । ग्रन्थमालाकी नियमावलीके अनुसार “जितने ग्रन्थ प्रकाशित होंगे उनका मूल्य लागत मात्र रखा जायेगा। किसी एक ग्रन्थका पूरा या उसका तीन चतुर्थांश खर्चकी सहायता देनेवाले दाताके नामका स्मरण-पत्र और यदि
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