Book Title: Prakrit Jain Katha Sahitya
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 44
________________ चारुदत्त फिर भटक गया । कोई त्रिदण्डी साधु उसे कीमिया बनाकर देने का लोभ देकर गाँव से श्वापदबहुल अटवी में ले गया। रात्रि के समय गमन । दिन में पुलिंदों के भय से छिपकर रहना । पर्वतों की गुफा में पहुँचे । वहाँ साधु ने तृणाच्छादित एक अंध कूप में ढकेल दिया । किसी तरह वहाँ से निकला तो जंगली मैंसे और भयंकर अजगर से अपनी रक्षा करने में समर्थ हो सका । लेकिन चारुदत्त ने हिम्मत न हारी । उसने थोड़ी-सी पूँजी जोड़कर फिर से धन कमाने का संकल्प किया । अब की बार वह परदे, आभूषण, महावर, लाल वस्त्र और कंकण आदि माल जहाज में भरकर सार्थ के साथ चल पड़ा । वह हूण, खस और चीनियों के देश में उतरा। वहाँ से वैताड्य पर्वत की तहलटी में डेरा डाला । यहाँ तुंबरू-चूर्ण की पोटलियाँ कमर में बांध और अपने माल की गठरियों को कांख में दबा, व्यापारी लोगों ने शंकुपद से पर्वत शिखर पर आरोहण किया । इस प्रकार शंकुपथ से पर्वत को पार कर वे लोग इषुवेगा ( वंक्षु-आमूदरिया ) नदी पर आये । तीक्ष्ण धार वाली इस अथाह नदी को तिरछे तैरकर भी पार नहीं किया जा सकता था । इसे पार करने के लिए वेत्रपथ का आश्रय लिया । इस पथ से नदी पार करने वाले को अनुकूल वायु चलने तक प्रतीक्षा करनी पड़ती थी । उत्तरी वायु बहने पर स्वभाव से मृदु और स्थिर वेत्रलताएँ दक्षिण की ओर झुक जाती थीं । उस समय उनकी पोरों का अवलम्बन ग्रहण कर दक्षिण तट पर पहुँचा जा सकता था। इसी तरह दक्षिण वायु के बहने पर वेत्रलताओं के सहारे नदी के उत्तरी तट पर पहुँच सकते थे । चारुदत्त और उसके साथी दक्षिण वायु के बहने की प्रतीक्षा करते रहे और दक्षिण वायु चलने पर वेत्रलताओं की सहायता से नदी के उत्तरी तट पहुँच गये । ___ यहाँ से टंकण देश के लिए प्रस्थान किया । यहाँ पहुँचकर नदीतट पर अलग स्थानों पर माल रक्खा । फिर लकड़ियाँ एकत्र कर उनमें आग लगा दी और वहाँ से हटकर एक ओर बैठ गये । धुआँ देखकर टंकण लोग वहाँ आ गये । रक्खा १. पर्वत पर आरोहण करते हुए पत्थर के शंकुओं-खूटियों को पकड़कर चढ़ते समय, पसीने के कारण हार्यो के गीले हो जाने से, खूटियों के हाथ से छुटकर, नीचे बहते हुए गंभीर द्रह में गिर जाने का अन्देशा रहता था । इसलिए गीले हाथों में रूक्षता लाने के लिए तुंबरू का चूर्ण मला जाता था । २. बृहत्कथाइलोकसंग्रह (१८. ४३२) में गर्दन में तेल के कुतुप (कुप्पे) बांधकर वेत्रमार्ग द्वारा पर्वत आरोहण किया गया है। ३. बृहत्कथाश्लोकसंग्रह (१८.. ४५२-५४) में किरात लोग अपने बकरे बेचने के लिए आते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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