Book Title: Prakrit Jain Katha Sahitya
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: L D Indology Ahmedabad

Previous | Next

Page 172
________________ १६३ कि इन कृतियों का आधार यही बृहत्कथा थी। फिर भी इस संबंध में प्रोफेसर एफ० लाकोत और डाक्टर एल० आल्सडोर्फ जिन निष्कर्षों पर पहुँचे हैं, उनसे पता लगता है कि वसुदेवहिंडी बृहत्कथा का रूपान्तर होना चाहिये । अवश्य ही वसुदेवहिंडी की अपेक्षा बृहत्कथाश्लोकसंग्रह काव्य सौष्ठव की शैली में लिखा हुआ अधिक सरस काव्यग्रंथ है जिसमें काव्य छटा के साथ-साथ हास-परिहास और व्यंग्य का पुट देखने में आता है। घटना चक्र यहाँ अधिक विस्तृत, व्यवस्थित और पूर्ण दिखाई देता है । काम प्रसंगों का वर्ण अधिक उद्दामता से किया हुआ जान पड़ता है । वसुदेवहिंडी में कितने ही प्रसंग बहुत संक्षिप्त हैं और कहीं तो अस्पष्ट रह जाते हैं। ग्रन्थ के संपादन में उपयोगी किसी शुद्ध प्रति का उपलब्ध न होना भी इसका कारण हो सकता है । जिन प्रतियों का संपादन में उपयोग हुआ है वे अनेक स्थलों पर त्रुटित हैं । फिर, धर्मप्रधान कथा-ग्रन्थ होने से धामिकता की रक्षा करना भी आवश्यक हो जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210