Book Title: Prakrit Jain Katha Sahitya
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 182
________________ ने जैन श्रमणों के प्रद्वेष्टा नमुचि को दण्ड देने के लिए उससे तीन पैर (विक्रम) भूमि की याचना की । विष्णुकुमार के शरीर को बढ़ता हुआ देख भय से संत्रस्त हुआ नमुचि उनके चरणों में गिर पड़ा । ब्राह्मण परंपरा में इससे मिलती-जुलती कथा विष्णु भगवान् की आती है जिन्होंने वामन अवतार धारण कर बलि नाम के दैत्य को दंडित किया । बलि देवताओं को बहुत कष्ट देता था । कष्टों से त्राण पाने के लिए देवताओं ने विष्णु भगवान् का आह्वान किया । भगवान् ने वामन का रूप धारण कर उससे तीन पग भूमि मांगी। पहला पग उन्होंने पृथ्वी पर, दूसरा आकाश में और अन्य कोई स्थान न मिलने पर तीसरा पग बलि के सिर पर रख, उसे पाताल लोक में पहुँचा दिया। इस कथा का उल्लेख बृहत्कथाश्लोकसंग्रह में पाया जाता है । ब्राह्मणों की इस पौराणिक कथा का उल्लेख गुणाढ्य की बृहत्कथा में रहा होगा। आगे चलकर जैन परम्परा में विष्णु भगवान् के स्थान. पर विष्णुकुमार मुनि और देवताओं को कष्ट देने वाले बलि के स्थान पर जैन श्रमणों के प्रदेष्टा पुरोहित नमुचि की कल्पना कर, कथा को जैनधर्म के ढांचे में ढाल दिया गया। नेमिचन्द्रसूरि की उत्तराध्ययन-लघुवृत्ति (पृ०२४५अ-२४९अ) में यह कथा कुछ परिवर्तन के साथ आती है। यहाँ विष्णुकुमार को राजा पद्मरथ और रानी लक्ष्मीमति के स्थान पर ऋषभस्वामी के वंशोत्पन्न राजा पद्मोत्तर और महादेवी जाला का पुत्र बताया है । नमुचि को यहाँ उज्जैनी के राजा श्रीधर्म का मंत्री कहा है जिसने जैन सूरि सुव्रत से पराजित हो, हस्तिनापुर पहुँच राजमंत्री पद प्राप्त कर लिया । विष्णुकुमार मुनि को नमुचि ने तीन पग रखने के लिए भूमि दे दी लेकिन साथ ही यह भी कहा कि यदि तीन पग से बाहर की जमीन पर कहीं पैर रक्खा तो वह उसके सीर के बाल नोंच डालेगा। विष्णुकुमार का शरीर क्रोधाग्नि से बढ़ने लगा। इस कोप को शान्त करने के लिए इन्द्र ने देवांगनाएँ भेजी जिन्होंने अपनी गीतिका से मुनि का क्रोध शान्त किया।' इस समय से विष्णुकुमार मुनि त्रिविक्रम नाम से प्रख्यात हो गये । वसुदेवहिंडी की कथा की अपेक्षा नेमिचन्द्रसूरि की कथा कुछ विस्तार-पूर्वक कही गयी है । हरिषेणाचार्यकृत बृहत्कथाकोश में भी विष्णुकुमार का कथानक आता है । बहुत-सी बातों में उत्तराध्ययनवृत्ति से इसका साम्य है । राजा श्रीधर के १. सपरसंतावो धम्मवणविहावसू । दुग्गइगमणहेऊ कोवो ता उवसमं करेसु भयवं ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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