Book Title: Prakrit Jain Katha Sahitya
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 181
________________ १७२ उक्त दोनों रूपान्तरों का कोई सामान्य स्रोत होना चाहिए और यह स्रोत गुणाढ्य की बृहत्कथा हो सकता है । संभव है कि अगडदत्त कथानक की भाँति प्रस्तुत कथानक की भी एक से अधिक परम्पराएँ रही हों जिनका उपयोग वसुदेवहिंडीकार और बृहत्कथाश्लोकसंग्रहकार ने अपनी-अपनी रचनाओं में किया हो । इस कथानक के अन्य जैन रूपान्तर भी उपलब्ध हैं । आवश्यक नियुक्ति (९२४) में शिल्प सिद्धि के उदाहरण में कोक्कास का नामोल्लेख है । जिनदासगणि महत्तर ने अपनी आवश्यकचूर्णी ( पृ० ५४१ ) में कोक्कास की कथा विस्तार से दी है । हारिभद्रीय आवश्यकवृत्ति, ( पृ० ४०९अ - ४१०) में भी यही कथा है । वसुदेवहिंडी का कोक्कास ताम्रलिप्ति का निवासी था, लेकिन यहाँ उसे शूर्पारक का निवासी बताया है जो उज्जैनी में आकर रहने लगा था । यवनदेश में जाकर शिल्पविद्या सीखने की बात का यहाँ उल्लेख नहीं है । कोक्कास द्वारा निर्मित गरुड़यंत्र में राजा अपनी महारानी के साथ बैठकर आकाश की सैर किया करता । जो राजा उसकी आज्ञा में चलने से इन्कार करते, वह उन्हें आकाश मार्ग से मार डालने की धमकी देता । राजा की अन्य रानियाँ, महारानी से ईर्ष्या करने लगीं । एक बार जब राजा अपनी महारानी के साथ यंत्र में सवार होकर जा रहा था तो उन्होंने यंत्र की कील छिपा दी जिससे यंत्र पीछे न लौट सका और वह पृथ्वी पर गिर पड़ा । विमान कलिंग देश की भूमि पर गिरा । कलिंगराज ने राजा और रानी को गिरफ्तार कर लिया । उज्जैनी के राजकुमार ने कलिंग पर चढ़ाई कर, अपने माता-पिता को मुक्त किया । शकुनयंत्र द्वारा समाचार भेजने का भी यहाँ उल्लेख है । हरिषेणाचार्यकृत बृहत्कथाकोश (५५, एक दिव्य वर्धकी बताया है जो स्त्रीरूप से युक्त कुशल था । मनुष्य के मनमोहक स्त्रीरूप यंत्र का दिव्य चित्रकारों को नीचा दिखा दिया था । कोक्कास की कथा की भी एक से अधिक परम्परा रही होंगी, तथा कालान्तर में यवन देश का उल्लेख अनावश्यक समझकर विस्मृत कर दिया गया होगा । ३ विष्णुकुमार की कथा यह कथा-प्रसंग भी वसुदेवहिंडी और बहत्कथाश्लोकसंग्रह दोनों में पाया जाता है | यह कथानक पहले आ चुका है । जैन कथा के अनुसार, विष्णुकुमार Jain Education International १७४, पृ० ८३ ) में कोकाश को शतयंत्रों का निर्माण करने में निर्माण कर उसने कितने ही For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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