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इस संबंध में कलिकालसर्वज्ञ कहे जाने वाले तथा गुजरात में जैन संस्कृति के परम प्रतिष्ठाता आचार्य हेमचन्द्रकृत, भारत-यूरोपीय आर्य भाषाओं के साहित्य की अमूल्य निधि देशीनाममाला का उल्लेख आवश्यक है । देशी शब्दों का बड़ा से बड़ा यह संकलन प्राकृत, अपभ्रंश, एवं उत्तरभारतीय आधुनिक भाषाओं में पाये जाने वाले देशी शब्दों के अध्ययन की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । हेमचन्द्र के शब्दों में, महाराष्ट्र, विदर्भ, और आभीर आदि देशों में प्रसिद्ध शब्दों का ही यहाँ संकलन किया गया है; किन्तु ऐसे शब्दों की संख्या अनन्त होने से जीवन-भर भी उनका संकलन संभव नहीं, अतएव अनादिकाल से प्रचलित प्राकृत भाषा के विशेष शब्दों को ही यहाँ लिया गया है ।
मनोरंजक साहित्यिक कथानकों की अपेक्षा लोककथाओं का विशेष महत्त्व है । इनमें लोकजीवन संबंधी सुख-दुखों का प्रतिबिंब देखने को मिलता है । वस्तुतः भारतीय कथा - साहित्य का इतिहास अधिकांश रूप में भारतीय चिन्तन, धर्म और रीति-रिवाज का ही इतिहास है-लाकोत का यह कथन निस्सन्देह सत्य है । भारतीय कथा साहित्य के अध्येता विंटरनित्स ने भारतीय कथा-कहानियों को भारतीय मस्तिष्क की सर्वश्रेष्ठ उपज कहा है; इन कथा-कहानियों ने वास्तविक साहित्य के पद को प्राप्त किया है और ये अधिकांश रूप में अन्य सभ्य देशों की अपेक्षा अधिक प्राचीन हैं । भारत की भूमि को उन्होंने कथा - कहानी और पशु-पक्षियों की कथा-कहानियों के अविष्कार के लिए विशेष रूप से अनुकूल बताया है । पुनर्जन्म के सिद्धान्त में विश्वास रखने के कारण, मनुष्यों और पशुओं में भेद होने से भारतीय कथाओं में पशु-पक्षियों को भी कथा के नायक होने का अवसर प्राप्त हो सका है। इसके सिवाय, भारतीय कल्पनाशक्ति के अतिशय प्राचुर्य को संतुष्ट करने के लिए कथाकारों को अमानवीय लोकों की कल्पना करनी पड़ी । फिर, भारत हमेशा से साधु-संतों और तीर्थस्थानों के यात्रियों का देश रहा है; ऐसी हालत में दूसरों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए, तथा धर्म और नीति का उपदेश देने के लिए कथा-कहानियों का आश्रय ग्रहण किया गया । परस्पर मनोरंजन के लिए भी कथा-कहानियों का जीवन में प्रमुख स्थान रहा, यद्यपि ये कहानियाँ हमेशा धार्मिक नहीं हुआ करती थीं । लौकिक कथाएँ पौराणिक कथाओं एवं पशु-पक्षियों आदि की काल्पनिक कथाओं (फेबल्स) से भिन्न हैं । पौराणिक कथाओं में ज्ञान की पिपासा
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