Book Title: Prakrit Jain Katha Sahitya
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 178
________________ कृति प्रस्तुत की। प्राकृत जैन कथा-साहित्य को समझने के लिये जैन कथाओं के विकास का एक विहंगावलोकन कर लेना आवश्यक है । प्राकृत जैन कथाओं का विकास आगमबाह्य कथा-साहित्य में वसुदेवहिंडी का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं, भाषा और विषय आदि की दृष्टि से भी यह प्राचीन है । इस कृति में उल्लिखित कथाओं का उत्तरकालीन प्राकृत कथा साहित्य पर गहरा प्रभाव है । अतएव इस महत्त्वपूर्ण कृति की कतिपय कथाओं की चर्चा कर देना उपयोगी होगा। १. अगड़दत्त की कथा अगड़दत्त का उपाख्यान पहले आ चुका है । वसुदेवहिंडी की यह कथा उत्तराध्ययन की वादिवेताल शांतिसूरि (मृत्यु १०४० ई०) कृत शिष्यहिता पाइयटीका और नेमिचन्द्रसूरि (पूर्वनाम देवेन्द्रगणि) कृत सुखबोधा टीका (१०७३ ई. में समाप्त) में भी आती है। वसुदेवहिंडी (पृ० ३५-४९) के अनुसार, अगडदत्त उज्जैनी के राजा जितशत्रु के सारथि अमोधरथ और उसकी भार्या यशोमती का पुत्र था । अपने पिता का देहान्त हो जाने पर वह अपने पिता के परम मित्र कौशाम्बी के दृढ़प्रहारी नामक आचार्य के पास शस्त्रविद्या ग्रहण करने जाता है । वहाँ पहुँचकर गृहपति यक्षादत्त की पुत्री मामदत्ता से उसका प्रेम हो जाता है । परिव्राजक का वेष बनाकर रहने वाले चोर का पता लगाकर वह उसका वध कर देता है । भूमिगृह में जाकर उसकी भगिनी से मिलता है । वह उससे भातृवध का बदला लेने का प्रयत्न करती है । अगड़दत्त उसे पकड़कर राजकुल में ले जाता है । सामदत्ता को लेकर वह स्वदेश लौटता है । अटवी में धनंजय नाम के चोर से उसका सामना होता है। उसका वध कर वह उन्जैनी वापिस लौटता है। अगदत्त सामदत्ता के साथ उद्यान यात्रा के लिए जाता है। सामदत्ता को सर्प डस लेता है। विद्याधर युगल के स्पर्श से वह चेतना प्राप्त करती है। देवकुल में पहुँचकर सामदत्ता अगड़दत्त के वध का प्रयत्न करती है। स्त्री निन्दा और संसार-वैराग्य के रूप में कहानी का अंत होता है। सामदत्ता के नखशिख का वर्णन शृङ्गारयुक्त समासांत शैली में किया गया है । अगड़दत्त स्वयं अपने चरित्र का वर्णन प्रथम पुरुष में करता है। शान्तिसूरि कृत उत्तराध्ययन की बृहद्वृत्ति (४, पृ० २१३-१६) में भी अगड़दत्त की कथा आती है । 'वृद्धवाद' का उल्लेख कर कथा को परम्परागत २२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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