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कर जैन विद्वानों ने कथा-साहित्य को एक नया मोड़ दिया ।'
ईसवी सन् की लगभग पहली-दूसरी शताब्दी से ही प्राकृत में कथा-साहित्य की रचना आरंभ हो गयी थी। पादलिप्त की तरंगवती, मलयवती, मगधसेना, और संघदासगणिवाचकविरचित वसुदेवहिंडी, धूर्ताख्यान आदि कथाग्रन्थों का पाँचवीं शताब्दी में रचे गये छेदसूत्रों के भाष्यों में उल्लेख मिलता है। उद्योतनसूरि की कुवलयमाला (७७९ ई०) की प्रस्तावना में पादलिप्त, शालवाहन, गुणाढ्य, विमलांक, देवगुप्त, हरिवर्ष, जटिल, रविषेण, और हरिभद्र आदि के नामों के साथ उनकी रचनाओं का भी उल्लेख है । इनमें पादलिप्त की तरङ्गवईकहा, गुणाड्य की बृहत्कथा, विमलांक का हरिवंश, देवगुप्त का त्रिपुरुषचरित, हरिवर्ष की सुलोचना आदि रचनाएँ अनुपब्ध हैं। किन्तु संघदासगणिवाचक का वसुदेवहिंडी (प्रथम खण्ड), धर्मसेन महत्तर का वसुदेवहिंडी (मध्यम खण्ड), विमलांक का पउमचरिय, हरिभद्रसूरि की समराइच्चकहा, शीलांक का चउप्पन्नमहापुरिसचरिय, भद्रेश्वर की कहावली जैसी प्राकृत की प्राचीन महत्त्वपूर्ण कृतियाँ उपलब्ध हैं। उपदेशपद, उपदेशमाला, धर्मोपदेशमाला आदि औपदेशिक साहित्य भी इसमें जोड़ा जा सकता है । इन सबकी रचना ईसवी सन् की दसवीं शताब्दी तक में हो चुकी थी। तत्पश्चात् ११-१२ वीं शताब्दी में गुजरात और राजस्थान के श्वेतांबर आचार्यों के हाथों प्राकृत कथा-साहित्य उन्नति के चरम शिखर पर पहुँच गया । इस समय गुजरात में चालुक्य, मालवा में परमार तथा राजस्थान में गुहिलोत और चाहमान राजाओं ने जैनधर्म को प्रश्रय दिया जिससे राजदरबारों में जैन महामात्यों, दण्डनायकों, सेनापतियों, और श्रेष्ठियों का प्रभाव बढ़ा और ये प्रदेश जैन विद्वानों की प्रवृत्ति के केन्द्र बन गये । इसके फलस्वरूप कहाणयकोस, णाणपंचमीकहा, कथामणिकोष, कहारयणकोस, कालिकायारिय कहाणय, नम्मयासुन्दरीकहा, कुमारवालपड़िबोह, प्राकृतकथासंग्रह, जिनदत्ताख्यान, सिरिवालकहा, रयणसेहरीकहा, महीवालकहा आदि सैकड़ों प्राकृत कथा ग्रन्थों की रचना की गयी।
१. प्रबंधचिंतामणिकार ने लक्ष्य किया है
भृशं श्रुतत्वान्न कथाः पुराणाः । प्रीणन्ति चेतांसि तथा बुधानाम् ॥
-पौराणिक कथाओं के बार-बार श्रवण करने से पंडितजनों का चित्त प्रसन्न नहीं होता। २. डॉ. हर्टल के अनुसार, मध्यकाल से लगाकर आजतक जैन विद्वान् ही मुख्य कथाकार
रहे हैं । इस विशाल कथा साहित्य में जो सामग्री सन्निहित है, वह लोक वार्ता के अध्येता विद्यार्थियों के लिये अत्यंत उपयोगी है। वही, पृ० ११ ।
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