Book Title: Prakrit Jain Katha Sahitya
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 169
________________ १६० इस समय आचेर ने व्यापारियों को अपने-अपने बकरे मार डालने का आदेश दिया । सानुदास ने कहा कि ऐसे सुवर्ण को धिक्कार है जो प्राणिवध से प्राप्त किया जाये (इस चर्चा के लिए देखिए, पीछे, पृ० ३५-३६)। सानुदास ने अपने बकरे का वध न कर, दूसरे के बकरे को ताड़ित किया । दुर्गम मार्ग पर चलने के कारण कुछ ही साथी शेष रह गये थे । व्यापारियों का दल विष्णुपदी गंगा पर पहुँचा । सबको भूख लग आई थी । नायक ने आदेश दिया कि बकरों को मारकर उनका मांस भक्षण किया जाय और फिर उनकी खाल को उलट, उसे सीं कर ओढ़ लिया जाये । उसे इस तरह ओढ़ा जाये कि खून से तर हुआ अन्दर का भाग ऊपर दिखायी पड़ने लगे । तत्पश्चात् यहाँ हेमभूमि' से आने वाले पक्षी उन्हें मांसपिण्ड समझ आकाश-मार्ग से रत्नद्वीप को लेकर चल १. वसुदेवहिंडी में रत्नद्वीप । जब चारुदत्त के साथी बकरों को मारने के लिए उतारू हो गये तो चारुदत्त ने रुद्रदत्त से कहा--यदि मुझे ऐसा मालूम होता कि इस व्यापार में यह सब करना होता है तो मैं तुम लोगों के साथ कभी न आता । इस बकरे ने तो जंगल पार करने में कितनी सहायता की है ! रुद्रदत्त ने उत्तर दिया--तुम अकेले क्या कर सकते हो ? चारुदत्त-मैं अपनी देह का त्याग कर दूंगा। तत्पश्चात् चारुदत्त के मरणभय से अपने साथियों के साथ वह उस बकरे को मारने लगा। चारुदत्त उसे न रोक सका । चारुदत्त ने बकरे को धर्म का उपदेश दिया और णमोकार मन्त्र पढ़ा। रुद्रदत्त और उसके साथियों ने बकरे को मार दिया। बृहत्कथाश्लोकसंग्रह (१८.४६९-४८२, पृ० २६३-४) में इस प्रसंग पर सानुदास कहता है--ऐसे सुवर्ण को धिक्कार है जिसके लिए प्राणिवध करना पड़े । यह बकरा मुझे ही क्यों न मार दे ! यह सुनकर रोष और विषाद के कारण निष्प्रभ हुआ आचेर गुनगुनाते हुए (मूल में 'अम्बूकृत' शब्द है जिसका अर्थ होता है होठ बन्द कर गुनगुनाना) बोला-अरे बैल ! तू समय और असमय को नहीं समझता। कहाँ कृपाण का प्रयोग करना चाहिए और कहाँ कृपणों पर कृपा करना उचित है-यह तू नहीं जानता । अरे सिद्धांत के पंडित ! तेरी करुणा स्पष्ट है कि एक जरासी बात के लिए तू सोलह आदमियों का बध करना चाहता है? तुझे पता है कि इस बकरे के मार देने पर -: चौदह प्राणियों को जीवन मिलेगा और न मारने पर इसके साथ तुम और हम सब रसातल को पहुँच जायेंगे ! क्षुद्र प्राणी की रक्षा के लिए दुस्त्याज्य अपनी आत्मा का त्याग कभी नहीं करना चाहिए । अपनी आत्मा की तो दारा और धन से सदा रक्षा ही करनी चाहिए । अपने कथन के समर्थन में उसने भगवद्गीता का श्लोक पढा, और जैसे कृष्ण ने अर्जुन को कर कर्म करने के लिए प्रेरित किया, वैसे ही सानुदास से भी यह क्रर कर्म कराया । तथा देखिये ४९३-९७, पृ. २६५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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