Book Title: Prakrit Jain Katha Sahitya
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 168
________________ लिए उसने कपास का व्यपार किया। उसकी सात ढेरियाँ लगाई, किन्तु दुर्भाग्य से मूषक दीपक की जलती हुई बत्ती लेकर भागा और सारी कपास जलकर खाक हो गयी। पांड्यमथुरा से उत्तर दिशा की ओर चला । वटवृक्ष के नीचे विश्राम किया । गौड़भाषा में बातचीत करने वालों से मुलाकात हुई । सानुदास शिविका में सवार हो ताम्रलिप्ति पहुँच अपने मामा से मिला ।' घर लौट जाने के बाद मामा ने उपदेश दिया । आचेर नामक वणिक् की अनेक वणिकों के साथ सुवर्णभूमि जाने की तैयारी । सानुदास भी साथ चल दिया । सुवर्णभूमि पहुँच जहाज ने लंगर डाला । प्रातःकाल सार्थवाह का आदेश पा, कमर में भोजन का सामान बांध और गले में तेल के कुप्पे लटका कोमलस्थूल और शोष-दोष आदि से रहित वेत्रलताका सहारा लेकर यात्रियों ने पर्वत पर चढ़ना आरंभ किया । पर्वत की चोटी पर पहुँच कर रात्रि व्यतीत की। वहाँ एक नदी दिखायी दी जहाँ विविध आकार के पाषाण पड़े हुए थे । आचेर ने इन पाषाणों को स्पर्श करने की मनाही की । दूसरे तट पर बांसों का झुरमुट खड़ा था । उस पार हवा के चलने से बांस* इस पार झुक जाते थे। इनपर आरूढ़ होकर यात्री नदी के उस पार उतर गये । इस विभीषण पथ को वेणुपथ कहा गया है । यहाँ से दो योजन चलकर एक पतला रास्ता आया जिसके दोनों ओर अंधकार से पूर्ण एक भीम खड्ड दिखाई दिया । आचेर ने गीली और सूखी लकड़ियाँ, पत्ते और तृण आदि एकत्र कर धुआँ करने का आदेश दिया । धुएँ को देख जीन और चीतों के चमड़ों के बने बख्तर-लदे बकरों की बिक्री के लिए किरात वहाँ आये । इन बकरों को यात्रियों ने कुसुंभ, नीले और शाकलिका वस्त्र, खाण्ड, चावल, सिंदूर, नमक और तेल के बदले खरीद लिया। हाथ में लम्बे बांस ले, बकरों पर सवार होकर वे विकट मार्ग से आगे बढ़े। रास्ता इतना संकरा था कि यात्रियों का पीछे लौटना दुष्कर था, इसलिए सब लोग पंक्तिबद्ध होकर आगे ही चलते चले गये । इस पथ का नाम अजपथ है जो बहुत भयंकर है । यात्री आगे बढ़ ही रहे थे कि इतने में बड़े-बड़े धनुष लिए म्लेच्छों की सेना दिखायी दी। क्रय-विक्रय करके वे लोग वापिस लौट गये । बकरों की पंक्ति आगे बढ़ी। पंक्ति में आचेर का छठा और सानुदास का सातवां स्थान था । १. बही, भाग ५, ३०७-४२२, पृ० २४७-५८ २. यहाँ बांस के लिए मस्कर शब्द' का प्रयोग है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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