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पहुँच गये । गोमुख ने दोने के आकार के पद्मपत्र को जल में तैरा दिया। इसमें थोड़ी रेत डाली, और यह नाव की भाँति तैरने लगा । मरुभूति ने दूसरा पद्मपत्र लिया और उसमें बहुत-सा रेत भर दिया । भारी होने से पद्मपत्र की यह नाव डूब गयी। सब मित्र हंसने लगे। उसने दूसरा पद्मपत्र जल में डाला । लेकिन प्रवाह की शीघ्रता के कारण नाव के जल्दी चलने से गोमुख जीत गया । पनपत्र की नाव बहुत दूर चली गयी।
पुलिनतट पर, महावर से रंगे किसी युवती के पदचिह्न देखकर मरुभूति को आश्चर्य हुआ।
गोमुख-इसमें आश्चर्य की कौन बात ? ऐसे जलप्रदेश अनेक हो सकते हैं ? मरुभूति--अरे, यह देखो, दो पैरों के निशान ! ।
गोमुख—इसमें क्या हुआ ? हमारे चलने-फिरने से भी तो पैरों के सैकड़ों निशान बन जाते हैं ! .
मरुभूति -लेकिन भई, हमारे पैरों के निशान तो आगे-पीछे पैरों के रखने से बनते हैं, और ये निशान बीच-बीच में टूटे हैं ! पता नहीं लगता, कहाँ से शुरू हुए हैं और कहाँ इनका अंत हुआ है ! जरा ध्यान से देखो !
हरिशिख—इसमें क्या ? कोई पुरुष नदी तट पर खड़े हुए वृक्ष पर चढ़, एक शाखा से दूसरी शाखा पर पहुँच गया और जब उसने देखा कि वह शाखा कोमल हैं, तो उसपर से वह कूद पड़ा और फिर से वृक्ष पर चढ़ गया।
गोमुख-(कुछ विचार कर) यह नहीं हो सकता । यदि वह वृक्ष के ऊपर से कूदा होता तो उसके हाथ-पैर के संघर्ष के कारण नीचे गिरे हुए फूल और पत्ते नदीतट पर और जल में बिखर जाते ।
हरिशिख--तो फिर ये पैर किसके होने चाहिए ? गोमुख-किसके क्या ? किसी आकाशगामी के होंगे।
हरिशिख-आकाशगामी के किसके ? किसी देव के ? किसी राक्षस के ? चारण मुनि के ? या फिर किसी ऋद्विधारी ऋषि के ?
गोमुख-देवों के तो इसलिए नहीं हो सकते कि वे भूमि से चार अंगुल ऊपर विहार करते हैं । राक्षसों का शरीर स्थूल होने के कारण उनके पैर भी
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