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१४९ अवयवों की बिक्री के लिए लायी गयी थीं। बढ़ई, लुहार, कुम्हार और वरुड वीणावादन में व्यस्त थे।
यान से उतरकर ब्राह्मण ने वीणादत्तक के गृह में प्रवेश किया । वहाँ मर्दनशास्त्र के विशेषज्ञों और सूदशास्त्र में निष्णात रसोइयों ने उसकी सेवा-सुश्रूषा की। दत्तक के परिवार के साथ आनन्दपूर्वक उसने भोजन किया । ताम्बूल आदि से मुखशुद्धि की गयी।
_ब्राह्मण ने दत्तक से पूछा-इस नगरी में वीणा के इतने अधिक रसिक लोग क्यों दिखाई देते हैं ?
वीणादत्तक-यहाँ समस्त गुणों की खान त्रैलोक्यसुंदरी गंधर्वदत्ता रहती है। उसका पिता सानुदास वणिक्पति उसे किसी को नहीं देना चाहता । उसने घोषणा की है कि जो कोई उसे वीणावादन में पराजित करेगा, वही उसके पाणिग्रहण का अधिकारी हो सकता है। चंपा में कोई भी ऐसा नगरवासी न मिलेगा जो उसका पाणिग्रहण न करना चाहता हो । ६४ विद्वानों के समक्ष छह छह महीने बाद, नागरिकों की गायन प्रतियोगिता होती है। बहुत समय व्यतीत हो जाने पर भी अभी तक कोई उसे वीणावादन में पराजित नहीं कर सका।
ये बातें हो ही रही थीं कि वेत्रधारी दो वृद्ध पुरुषों ने आकर निवेदन किया कि श्रेष्ठी ने कहलवाया है कि यदि मित्रों की गोष्ठी तैयार हो तो उत्सव का आयोजन किया जाये।
उत्सव की तैयारी शुरू हो गयी।'
वत्सदेशवासी ब्राह्मण ने जानना चाहा कि क्या वह गंधर्वदत्ता के दर्शन कर सकता है ? उत्तर में कहा गया है कि कोई अगान्धर्व उसे नहीं देख सकता और यदि देखना ही हो तो गांधर्व विद्या की शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए।
कठोर स्वरवाले श्रुतिस्वरज्ञान से हीन भूतिक नामक दुर्भग वीणाचार्य को बुलाया गया, लेकिन इस विकृत नर-वानर के दर्शन कर ब्राह्मण को लगा कि न उसे गंधर्वविद्या की शिक्षा प्राप्त करना है और न गन्धर्वदत्ता ही लेना है । इतना ही नहीं, इस प्रकार का शिष्यत्व प्राप्त कर सारे राज्य का लाभ भी निंद्य है । रैखर, वीणादत्तक ने वीणाचार्य को आसन पर बैठाकर निवेदन किया-महाराज ! इस यक्षीपति ब्राह्मण को नारदीय (गांधर्व) विद्या सिखाने का अनुग्रह करें । वीणाचार्य ने उत्तर दिया --- यह अभिमानी है, मेरी अवज्ञा करता है और फिर दरिद्र होने के १. १६. १-९३, पृ० १९१-९९ ( गन्धर्वदत्तालामे चम्पाप्रवेश नामक सर्ग) ।
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