Book Title: Prakrit Jain Katha Sahitya
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 161
________________ १५२ सभाविसर्जित हो गयी । सानुदास वीणादत्तक के साथ यक्षीकामुक को घर के भीतर लिवा ले गया । यक्षीकामुक को संबोधन करके उसने कहा-हे यक्षीकामुक ! हम सब आपके दास हैं । आपने कठिन विपत्ति से हमारा उद्धार किया है । फिर वह कहने लगा-आज का दिन शुभ दिन है, गन्धर्वदत्ता का पाणिग्रहण करने का अनुग्रह करें । यक्षीकामुक ने उत्तर दिया-मैं पवित्र ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुआ हूँ, असवर्ण कन्या से कैसे विवाह कर सकता हूँ ? । सानुदास-यह कन्या सवर्णा है, सवर्णा ही नहीं, उत्कृष्ट भी हो सकती है। आप विश्वस्त होकर पाणिग्रहण करें। मनु महाराजने कहा है-अपने से निम्न वर्ण की भार्या को स्वीकार करता हुआ ब्राह्मण दोष का भागी नहीं होता। पाणिग्रहण संस्कार सम्पन्न हुआ ।' ६ पुष्करमधु का पान (अ) वसुदेवहिंडीः चारुदत्त की माँ के भाई सर्वार्थ की कन्या मित्रवती का चारुदत्त के साथ पाणिग्रहण ।' चारुदत्त का अपने मित्रों के साथ उद्यान-गमन । प्यास लगने के कारण एक वृक्ष के नीचे विश्राम । चारुदत्त का मित्र हरिशिख पास के पोखर में उतरा। कोई आश्चर्यकारी वस्तु देखने के लिए उसने चारुदत्त को बुलाया । उसने पोखर में लगे हुए सुंदर कमलों के अपूर्व रस की ओर चारुदत्त का ध्यान आकर्षित किया । गोमुख ने बताया कि देवों द्वारा उपभोग्य वह पुष्करमधु है । उसे कमलिनी के पत्तों में ग्रहण कर लिया गया। प्रश्न हुआ कि मनुष्यलोक में दुर्लभ वह पुष्करमधु किसे दिया जाये ? क्या राजा को दिया जाये ? राजा प्रसन्न होकर शायद आजीविका का प्रबंध कर सके । लेकिन राजा के दर्शन दुर्लभ होते हैं और वह जल्दी प्रसन्न नहीं होता । तत्पश्चात् अमात्य और नगररक्षक का नाम सुझाया गया । अंत में समस्त कार्यों के साधक चारुदत्त को प्रदान करने का निश्चय किया गया । चारुदत्त ने कहा कि क्या वे नहीं जानते कि वह मधु, मांस और मद्य का सेवन न करने वाले कुल में उत्पन्न हुआ है ? गोमुख ने उत्तर दिया-मित्र ! हम जानते हैं, लेकिन यह मद्य नहीं, देवों के योग्य अमृत है । पुष्करमधु का पान करने से चारुस्वामी की तृप्ति १. वही, गन्धर्वदत्ताविवाह, १७ वां सर्ग, पृ० २००-२.१७ २. वसुदेवहिंडी पृ० १४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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