Book Title: Prakrit Jain Katha Sahitya
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: L D Indology Ahmedabad

Previous | Next

Page 150
________________ १४१ होते तो पुलिन पर अन्दर तक धंस जाते । तप के कारण कृश शरीर वाले सिद्धों और ऋषियों के पैरों की उंगलियां स्पष्ट दिखायी नहीं पड़तीं । अतएव ये पैर किसी मनुष्य के ही हो सकते हैं। पुरुषों के पैर आगे से और स्त्रियों के पीछे से दबे हुए होते हैं । और देखो लगता है कि जिस पुरुष के ये पैर हैं वह कोई भार उठाये हुआ था । हरिशिख -- वह कौनसा भार उठाये था ? किसी शिला का ? वृक्ष का ? अथवा किसी शत्रु का वह भार था ? गोमुख -- देखो, यदि वह भार शिला का होता तो उसके पैर अंदर तक धँस गये होते । यदि वृक्ष का होता तो पृथ्वी पर पत्ते फैल गये होते । शत्रु का भार इसलिए नहीं कि इतने रमणीय स्थान पर कौन शत्रु को लेकर आयेगा । अतएव असिद्ध विद्यावाली विद्याधरी का ही यह भार है । विद्याधर ने उसके जघन पर अपना दक्षिण हाथ रक्खा जिससे उस कामी विद्याधर का दक्षिण पैर अन्दर चला गया । तुम उसके सिर से गिरे हुए मालती के पुष्पों से अवकीर्ण स्थान को नहीं देख रहे हो ? इधर-उधर देखने से जल के समीप अन्यत्र भी स्त्री-पुरुष के पैर दिखायी दिये । गोमुख ने कहा- - वह नागरक यहीं कहीं होना चाहिए | हरिशिख – क्यों ? गोमुख -- दूसरे के चित्तानुवृत्ति और अपने चित्त के निग्रह को नागरकता कहा गया है । अतएव मंथर गति से गमन करती हुई कामिनी का अतिक्रमण करके वह नहीं जा सकता । उनके पादचिह्नों का अनुगमन करते हुए वे आगे बढ़े । भ्रमरों से गुंजायमान सप्तपर्ण को उन्होंने देखा । इस वृक्ष के नीचे उन दोनों के एकान्त विहार करते समय जो कुछ बीता उसका वर्णन गोमुख ने किया । गोमुख -- यहाँ विद्याधर की पत्नी जब कुपित हो गयी तो विद्याधर ने उसे प्रसन्न किया । कुसुमवाले पल्लवों द्वारा निर्मित इस बिस्तर को देखो । श्रान्त होकर वह यहाँ बैठ गयी । उसके जघन के संचरण से पल्लव जर्जरित हो गये । विद्याधर ने गुरुत्रिक हाथ में ले जघन में स्थापित किया और उसे लगा कि मानो यह पृथ्वी उसके चरणों में लौट रही है ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210