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होते तो पुलिन पर अन्दर तक धंस जाते । तप के कारण कृश शरीर वाले सिद्धों और ऋषियों के पैरों की उंगलियां स्पष्ट दिखायी नहीं पड़तीं । अतएव ये पैर किसी मनुष्य के ही हो सकते हैं। पुरुषों के पैर आगे से और स्त्रियों के पीछे से दबे हुए होते हैं । और देखो लगता है कि जिस पुरुष के ये पैर हैं वह कोई भार उठाये हुआ था ।
हरिशिख -- वह कौनसा भार उठाये था ? किसी शिला का ? वृक्ष का ? अथवा किसी शत्रु का वह भार था ?
गोमुख -- देखो, यदि वह भार शिला का होता तो उसके पैर अंदर तक धँस गये होते । यदि वृक्ष का होता तो पृथ्वी पर पत्ते फैल गये होते । शत्रु का भार इसलिए नहीं कि इतने रमणीय स्थान पर कौन शत्रु को लेकर आयेगा । अतएव असिद्ध विद्यावाली विद्याधरी का ही यह भार है । विद्याधर ने उसके जघन पर अपना दक्षिण हाथ रक्खा जिससे उस कामी विद्याधर का दक्षिण पैर अन्दर चला गया । तुम उसके सिर से गिरे हुए मालती के पुष्पों से अवकीर्ण स्थान को नहीं देख रहे हो ?
इधर-उधर देखने से जल के समीप अन्यत्र भी स्त्री-पुरुष के पैर दिखायी दिये । गोमुख ने कहा- - वह नागरक यहीं कहीं होना चाहिए |
हरिशिख – क्यों ?
गोमुख -- दूसरे के चित्तानुवृत्ति और अपने चित्त के निग्रह को नागरकता कहा गया है । अतएव मंथर गति से गमन करती हुई कामिनी का अतिक्रमण करके वह नहीं जा सकता ।
उनके पादचिह्नों का अनुगमन करते हुए वे आगे बढ़े । भ्रमरों से गुंजायमान सप्तपर्ण को उन्होंने देखा । इस वृक्ष के नीचे उन दोनों के एकान्त विहार करते समय जो कुछ बीता उसका वर्णन गोमुख ने किया ।
गोमुख -- यहाँ विद्याधर की पत्नी जब कुपित हो गयी तो विद्याधर ने उसे प्रसन्न किया । कुसुमवाले पल्लवों द्वारा निर्मित इस बिस्तर को देखो । श्रान्त होकर वह यहाँ बैठ गयी । उसके जघन के संचरण से पल्लव जर्जरित हो गये । विद्याधर ने गुरुत्रिक हाथ में ले जघन में स्थापित किया और उसे लगा कि मानो यह पृथ्वी उसके चरणों में लौट रही है !
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