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मेरा नाम अमितगति है—शिवमंदिर नगर का निवासी, पिता महेंद्र विक्रम, माता सुयशा । एक बार धूमसिंह और गौरीपुंड नामक अपने मित्रों के साथ वैताढ्य पर्वत की तलहटी में सुमुख नामक आश्रम में गया । वहाँ मेरा मामा क्षत्रिय ऋषि हिरण्यलोम तापस रहता था। उसके अनुरोध पर उसकी रूपवती कन्या सुकुमालिका के साथ मैंने विवाह कर लिया । वह कभी स्वच्छंदाचारी न बन जाये, इसलिए मैंने उसे विद्याओं की शिक्षा नहीं दी।
धूमसिंह मेरी अनुपस्थिति में सुकुमालिका को बहकाने का प्रयत्न करता । वह मुझसे सब बात कहती लेकिन मैं विश्वास न करता, यद्यपि मेरा मन शंकित हो गया था।
एक बार की बात है, स्नान आदि करने के पश्चात् मेरी पत्नी और धूमसिंह मेरे केश संवार रहे थे। मेरे हाथ में दर्पण था। धूमसिंह हाथ जोड़कर मेरी पत्नी से अनुनय-विनय कर रहा था । दर्पण सामने होने से मुझे पता चल गया। क्रोध में आकर मैंने धूमसिंह को ललकारा—यही तेरी मित्रता है ! यहाँ से भाग जा नहीं तो मार डालूँगा ।
धूमसिंह वहाँ से चला गया । उसे फिर मैंने नहीं देखा ।
आज मैं अपनी पत्नी के साथ इस सुन्दर नदी तट पर आया । नीचे उतरने पर इस स्थान को मैंने रति के योग्य नहीं समझा, इसलिए वहाँ से चला आया।
तत्पश्चात् प्रणयकोप और प्रसादन के रमणीय प्रसंगों से लगाकर लतागृह से बाहर आने तक सारी कहानी सुना दी। विद्यारहित स्थिति में, मेरे शत्रु धूमसिंह ने मुझे बांध लिया और विलाप करती हुई सुकुमालिका को वह उठाकर ले गया ।
अब तुम लोगों ने अपनी बुद्धि और औषधि के प्रभाव से मुझे जीवित किया है । अतएव चारुस्वामी ! आप मेरे बंधु हैं । आज्ञा दीजिए, आप लोगों की क्या सेवा करूँ ? मुझे शीघ्र ही जाने की आज्ञा दें । मैं जाकर अपनी पत्नी की रक्षा करूँगा, कहीं वह मेरे जीवन की निराशा से अपने प्राणों को त्याग न दे।
इतना कहकर अमितगति वहाँ से चला गया।'
(आ) बृहत्कथाश्लोकसंग्रह : सानुदास की कथाः गोमुख सरोजपत्र को अपने नाखूनों से छेदने लगा। पत्रच्छेद्य को नदी के जल में तैरा दिया। तत्पश्चात् गोमुख ने पत्रच्छेद्य के लक्षण प्रतिपादित किये (व्यस्त्र, चतुरस्त्र, दीर्घ और वृत्त । १. पृ० १३३-४०
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