Book Title: Prakrit Jain Katha Sahitya
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 126
________________ वसुदेवहिंडी और बृहत्कथा डाक्टर एल० आल्सडोर्फ ने वसुदेवहिंडी की भाषा-संबंधी विशेषताओं पर प्रकाश डालते हुए इस ग्रन्थ को गुणाढ्य की अनुपलब्ध बड्डकहा (बृहत्कथा)' का जैन संस्करण बताया है। उनकी मान्यता है कि वसुदेवहिंडी नष्ट हुई बृहत्कथा की पुनर्रचना में अत्यन्त उपयोगी है । वे लिखते हैं-"वसुदेवहिंडीकार की योजना के क्षेत्र की तुलना आगमबाह्य जैन साहित्य के किसी ग्रन्थ से नहीं की जा सकती। इस ग्रन्थ की शैली न संक्षिप्त है और न शुष्क । यह सजीवता एवं लाक्षणिकता लिए हुए है तथा तत्कालीन जीवित भाषा का अत्यन्त मनोरंजक चित्र यहाँ प्रस्तुत किया गया है। अलंकृत वर्णनों से यह भाषा सजीव हो उठी है । इस प्रकार के वर्णन भारतीय कवियों को बहुत प्रिय रहे हैं।" उधर फ्रेंच विद्वान् प्रोफेसर एफ० लाकोत ने गुणाढ्य की बृहत्कथा के रूपान्तर बुधस्वामीकृत बृहत्कथाश्लोकसंग्रह, क्षेमेंद्रकृत बृहत्कथामंजरी तथा सोमदेवभट्टकृत कथासरित्सागर का तुलनात्मक अध्ययन कर बृहत्कथाश्लोकसंग्रह को बृहत्कथा के अधिक निकट बताया है । लाकोत की मान्यता है कि बृहत्कथामंजरी और कथा१. भोजकृत सरस्वती कण्ठाभरण के टीकाकार आसड के मतानुसार, हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण (८.४.३२६) में उद्धृत पैशाची गाथा बृहत्कथा का आदि नमस्कार है पनमथ पनय-पकुप्पित-गोली-चलनग्ग-लग्ग-पति-बिंबं । तससु नख-तपनेसुं एकातस-तनु-थलं लुई ।। नच्चन्तस्स य लीला-पातुक्खेवेन कंपिता वसुथा । 'छल्लन्ति समुद्दा सइला निपतन्ति तं हलं नमथ ॥ (भारतीय विद्या ३.१, पृ० २२८-३० १९४५) बुलेटिन आर स्कल आफ ओरिटिअल स्टडीज, जिल्द ८, पृ. ३४४-४९, १९३५ -३७ म वहिंडी. ए स्पेसिमैन आफ आर्किक जैन महाराष्ट्री' नामक लेख: तथा १९वीं अन् लीय प्राच्य विद्या परिषद् , रोम, १९३५ में Eine new Version des renen Brihatkatha of Gunadhya (a new Version der Version of theen ort Brihatkatha of Gunadhya) नामक जर्मन लेख इसके गुजराती और हि. Driharkatha of Gunadhva): मांडेसरा कत वसदेवहिडीपाद के लिए दाखए क्रमशः प्रोफेसर भोगीलाल ने गुजराती अनुवाद, प्र. ९-११ भमिका, पृ० १२-१७, बिहा अनुवाद, पृ० ९-१३, तथा कथासरित्सागर (१) 'गष्ट्रभाषापरिषद् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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