Book Title: Prakrit Jain Katha Sahitya
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 127
________________ १९८ सरित्सागर बृहत्कथाश्लोकसंग्रह का ही संक्षिप्त संस्करण है ।' उक्त दोनों विद्वानों के कथनों की सार्थकता की सिद्धि में, गुणाढ्य की बृहत्कथा पर आधारित स्वीकार किये जाने वाले वसुदेवहिंडी और बृहत्कथाश्लोकसंग्रह का संक्षिप्त तुलनात्मक अध्ययन यहाँ प्रस्तुत किया जाता है । वसुदेवहिंडी और बृहत्कथाश्लोकसंग्रह बृहत्कथाश्लोकसंग्रह, जो बृहत्कथा का नैपाली संस्करण कहा जाता है, की रचना संस्कृत में लगभग पाँचवीं शताब्दी में हुई । लेकिन गुणाढ्य की बृहत्कथा १. अत्यन्त समृद्ध बृहत्कथाश्लोकसंग्रह कथासरित्सागर और बृहत्कथामंजरी की अपेक्षा अधिक सरल है । लोकसंग्रह के लेखक ने प्राप्त सामग्री को सुव्यवस्थित रूप से प्रस्तुत किया है । विषय वस्तु अत्यन्त सीमित है । उक्त दोनों रचनाओं की तुलना में यहाँ कथाएँ अधिक विस्तारपूर्वक दी गयी हैं । लेखक सामान्य जनता के रीतिरिवाजों और रहन-सहन से पूर्णतया परिचित जान पड़ता है । बृहत्कथाश्लोकसंग्रह का शब्दकोष है; कितने ही शब्द निश्चित रूप से प्राकृत से लिये गये हैं, और बहुत से शब्द केवल कोषकारों के कोर्षों में ही संग्रहीत हैं; अनेक शब्द नये भी घड़े गये हैं । अनेक शब्दों को हेमचन्द्राचार्य ने उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है । भाषा प्राचीन है; अप्रचलित शब्दों का प्रयोग मिलता है । शैली रोचक और सरल है । देखिये Essai sur Gunadhya at la Brihatkatha (पेरिस, १९०८ ) का क्वार्टर्ली जरनल आफ द / मिथिक सोसायटी, बंगलूर सिटी, १९२३ में प्रकाशित अंग्रेजी अनुवाद । बृहत्कथारल कसंग्रह का देवनागरी लिपि में मूल संस्करण और उसका फ्रेंच अनुवाद १९०८ में पेरिस से प्रकाशित हुआ है । विंटरनित्स ने लाकोत के उक्त कथन को पुष्टि की है। उनकी मान्यता है कि यद्यपि गुणाढ्य और बुधस्वामी के समय में काफी अन्तर है, फिर भी क्षेद्र और सोमदेव के काश्मीरी संस्करणों की अपेक्षा बृहत्कथाश्लोकसंग्रह बृहत्कथा के निकट होने की प्रभावशाली छाप मन पर डालता है । उदाहरण के लिए, बृहत्कथा लोकसंग्रह में गोमुख को एक मनोरंजक पात्र के रूप में प्रस्तुत किया गया है जबकि कमोरी संस्करणों में वह केवल एक कथक के रूप में आता है । फिर, ५ वें सर्ग, यवन देश के कारीगरों का उल्लेख हैं जो आकाशयंत्र के निर्माण करने में कुशल से भारत के निवासी इस कला से अनभिज्ञ थे । १८ सर्ग में राजगृह के सार्थवाह की पुत्री एक यवनी से पैदा हुई थी । इससे हमें उस प्राचीनकाल का संकेत मिलता है जबकि यवन देश के कारीगरों ने उत्तर भारत में ख्याति प्राप्त की थी। भारय साहित्य में बहुत हो कम ग्रन्थ ऐसे मिलेंगे जिनमें हास-परिहास की मात्रा इविशद् रूप में पायी जाती हो जितनी कि प्रस्तुत रचना में सामान्यजनों का जन यहाँ खुशहाली और हँसी खुशी के जीवन के रूप में चित्रित है । हिस्ट्री आफ डियन लिटरेचर, जिल्द ३, भाग ने इसी प्रकार के विचार व्यक्त १, पृ० ३५०-५१ । ए०बी० कोथ और जे० किये हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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