________________
१०७
पालकथा) में सिद्धचक्र के माहात्म्य से श्रीपाल का कोढ़ नष्ट होने, तथा रयणसेहरीकहा (रत्नशेखरीकथा) में जैनधर्म के प्रभाव से राजा रत्नशेखर के विजय प्राप्त करने की कथा वर्णित है।
इनके अतिरिक्त, पूजाष्टककथा, सुव्रतकथा, मौनएकादशीकथा, अंजनासुंदरीकथा, अनन्तकीर्ति कथा, सहस्रमल्लचौरकथा, हरिश्चन्द्रकथानक आदि कथाग्रन्थों के नाम लिये जा सकते हैं ।
औपदेशिक कथा-साहित्य आगे चलकर धर्मदेशना जैन कथा साहित्य का एक प्रमुख अंग बन गया। यहाँ संयम, शील, तप, त्याग और वैराग्य आदि की भावनाओं को प्रमुख बताया गया। फलस्वरूप प्राकृत में धर्मदास की उपदेशमाला, हरिभद्रसूरि का उपदेशपद, जयसिंहसूरि का धर्मोपदेशमालाविवरण, मलधारी हेमचन्द्रसूरि का भवभावना और उपदेशमालाप्रकरण (पुष्पमालाप्रकरण), वर्धमानसूरि का धर्मोपदेशमाला-प्रकरण, जयकीर्ति का शीलोपदेशमाला, मुनिसुंदर का उपदेशरत्नाकर, शांतिसूरि का धर्मरत्न, आसड का उपदेशकंदलि और विवेकमंजरीप्रकरण, जिनचन्द्रसूरि का संवेगरंगशाला, आदि अनेक कथा-ग्रन्थों की रचना की गयी।
शांत रसप्रधान संवेगरंगशाला में संवेग की प्रधानता प्रतिपादित की गयी है
जैसे-जैसे भव्यजनों के लिए संवेगरस का वर्णन किया जाता है, वैसे-वैसे उनका हृदय द्रवित हो जाता है- जिस प्रकार मिट्टी के बने हुए कच्चे घड़े पर जल छिड़कने से वह टूट जाता है। चिरकाल तक यदि तप का आचरण किया हो, चारित्र का पालन किया हो, शास्त्रों का स्वाध्याय किया हो, लेकिन यदि संवेग रस का परिपाक नहीं हुआ तो सब धान के तुष की भाँति निस्सार है।'
चरित-ग्रंथों में कथाएँ प्राकृत में चरित-ग्रंथों की भी रचना की गयी। तरेसठ शलाकापुरुषों के चरितों में २४ तीर्थङ्करों, १२ चक्रवर्तियों, ९ वासुदेवों, ९ बलदेवों, और ९ प्रतिवासुदेवों के चरित लिखे गये । कल्पसूत्र में ऋषभ, अरिष्टनेमि, पार्श्व और महा१. देखिए, प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ० ४९०-५२४ २. जह जह संवेगरसो वणिज्जइ तह तहेव भव्वाणं ।
भिज्जति, खित्तजलमिम्मयामकुंभ व्व हिययाई ॥ सुचिरं वि तवो चिण्णं चरणं सुयं पि बहुपढियं । जइ नो संवेगरसो ता तं तुसखंडणं सव्वं ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org