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माया-मोह, श्रमणत्व की मुख्यता आदि विषय प्रतिपादित किये गये हैं । पूर्वकृत कर्मदोष के संबंध में उक्ति है-मनुष्य को पूर्वकृत कर्मों का ही फल मिलता है । अपराधों अथवा गुणों में दूसरा व्यक्ति केवल निमित्त मात्र होता है।'
___ कुवलयमाला में मनोनुकूल धर्मकथाएँ उल्लिखित हैं। कुवलयमाला और कुवलयचन्द्र की कथा के माध्यम से यहाँ संसार का स्वरूप, चार गतियाँ, जातिस्मरण, पूर्वकृत कर्म, चार कषाय, पाप का पश्चात्ताप, धनतृष्णा, जिनमार्ग की दुर्लभता, प्रतिमापूजन, पंच नमस्कार मंत्र, तीर्थकर धर्म, संसारचक्र, मोक्ष का शाश्वत सुख, सम्यक्त्व, व्रत, द्वादश भावनाएँ, लेश्या, वीतराग की भक्ति आदि का सोदाहरण वर्णन है। कथाकार ने अलंकारों से विभूषित, सुंदर, ललित पदावलि से सम्पन्न, मृदु एवं मंजुल संलापों से युक्त, सहृदय जनों को आनन्द प्रदान करने वाली कथाओं का यहाँ समावेश किया है।
जिनेश्वरसूरि के कहाणयकोस (कथाकोषप्रकरण) में जिनपूजा, साधुदान, जैनधर्म में उत्साह आदि, णाणपंचमीकहा (ज्ञानपंचमीकथा) में ज्ञानपंचमीव्रत का माहात्म्य, कथामणिकोष (आख्यानमणिकोष) में सम्यक्त्व, जिनबिंबदर्शन, जिनपूजा, जिनवंदन, साधुवंदन, जिनागमश्रवण, स्वाध्याय, रात्रिभोजनत्याग, जीवदया आदि, गुणचन्द्रगणि के कहारयणकोस (कथारत्नकोष) में नागदत्त, शंख, रुद्रसूरि आदि अपूर्व कथानकों में लोकव्यवहार संबंधी विविध विषय, कालिकायरियकहाणय (कालिकाचार्यकथानक) में युग प्रवर्तक कालिकाचार्य की कथा, नम्मयासुंदरीकहा (नर्मदासुंदरीकथा) में महासती नर्मदासुंदरी का आख्यान, कुमारपाल प्रतिबोध में अहिंसा आदि द्वादश व्रत, देवपूजा, गुरुसेवा, शीलसंरक्षण आदि, और प्राकृतकथासंग्रह में दान, शील, तप, भावना, सम्यक्त्व, नवकार मंत्र, संसार की अनित्यता आदि से संबन्ध रखने वाली कथा-कहानियों का वर्णन किया गया है। प्राकृतकथासंग्रह में कर्म की प्रधानता बताते हुए कहा है—“अथवा किसी को कभी भी दोष न देना चाहिए; सुख और दुख पूर्वोपार्जित कर्मों का ही फल है।" सिरिवालकहा (श्री
१. सम्बो पुव्वकयाणं कम्माण पावए फलविवागं । अवराहेसु गुणेसु य निमित्तमत्तं परो होइ ॥
-भव २, पृ० १६० २. अहवा न दायव्वो दोसो कस्सवि केण वडयावि। पुवज्जियकम्माओ हवंति जे सुक्ख दुक्खाइं ॥
-प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ. ४७६
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