Book Title: Patanjali Yoga Sutra Part 01
Author(s): Osho
Publisher: Unknown

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Page 16
________________ कोशिश करता है। क्योंकि शरीर में गति आयेगी तो फिर मन भी आसानी से गति कर सकता है। गतिहीन शरीर के साथ मन गतिमय नहीं हो सकता। मन को गतिमान शरीर का सहयोग चाहिए। यदि शरीर अगतिमान है और मन भी अगतिमान है, तब तुम केंद्र में, अंतस में केंद्रस्थ हो। स्थिर आसन केवल शारीरिक प्रशिक्षण नहीं है। यह एक ऐसी स्थिति का निर्माण करना हुआ जिसमें कि केंद्रस्थता घटित हो सकती है जिसमें कि तुम अनुशासित हो सकते हो जब तुम बस हो, जब तुम केंद्रस्थ हो गये हो, जब तुम जान गये कि मात्र होने का क्या अर्थ है, तब तुम सीख सकते हो क्योंकि तभी विनम्र बनोगे तब तुम समर्पित हो सकते हो तब कोई नकली अहंकार तुमसे चिपका न रहेगा क्योंकि एक बार जब स्वयं में केंद्रित हो जाते हो तब जान लेते हो कि सारे अहंकार झूठे हैं। तब तुम झुक सकते हो। और तब एक शिष्य का जन्म होता है। शिष्य होना एक बड़ी उपलब्धि है। अनुशासन के द्वारा ही तुम शिष्य बनते हो। अंतस में केंद्रस्थ होकर ही तुम विनम्र बनोगे। तुम ग्रहणशील बनोगे, तुम खाली हो पाओगे और तब गुरु अपने को तुममें उड़ेल सकता है। तुम्हारी रिक्तता में, तुम्हारे मौन में ही वह प्रवेश कर सकता है, तुम तक पहुंच सकता है तभी संप्रेषण संभव हो पाता है। शिष्य का अर्थ है, जो अंतस में केंद्रित है, जो विनम्र, ग्रहणशील और खुला है; जो तैयार है, सचेत है, प्रतीक्षारत और प्रार्थनामय है। योग में गुरु अत्यंत महत्वपूर्ण है- सर्वथा महत्वपूर्ण है। क्योंकि जब तुम उस व्यक्ति के, जो कि आत्मस्थ है, उसके गहन सान्निध्य में होते हो तभी तुम्हारे केंद्रीभूत होने की घटना घटेगी। यही है सत्संग का मतलब । तुमने सत्संग शब्द को सुना है। इस शब्द का प्रयोग बिलकुल गलत किया जाता है। सत्संग का अर्थ है सत्य का गहरा सान्निध्य । इसका अर्थ है सत्य के पास होना, सद्गुरु के पास होना, जो कि सत्य के साथ ख्याल हो चुका हो। बस, सद्गुरु के निकट ब रहना खुले हुए, ग्रहणशील और प्रतीक्षारत और यदि तुम्हारी प्रतीक्षा गहरी और सघन हो जाती एक गहन आत्म-मिलन घटित होगा। सद्गुरु कुछ कर नहीं रहा। बस वह वहां है, मौजूद उपलब्ध यदि तुम खुले हो तो वह तुममें प्रवाहित हो जायेगा। यह प्रवाहित होना ही सत्संग कहलाता है। सद्गुरु के साथ तुम्हें कुछ और सीखने की आवश्यकता नहीं है। यदि तुमने सत्संग सीख लिया, उतना काफी है। यदि तुम सद्गुरु के निकट रह सकते हो बिना कुछ पूछे, बिना सोच-विचार के, बिना तर्क के, बस, गुरु के निकट उपस्थित हो, प्राप्य हो, तो सद्गुरु का आत्म- अस्तित्व तुममें प्रवाहित हो सकता है। और आत्म-अस्तित्व प्रवाहित हो सकता है। वह तो प्रवाहित हो ही रहा है। जब कोई व्यक्ति अखंडता प्राप्त कर लेता है, तब उसका अस्तित्व एक विकिरण, रेडिएशन बन जाता है। वह प्रवाहित होता रहता है। तुम उसे

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