Book Title: Paryushanasthahnika Vyakhyan
Author(s): Manivijay
Publisher: Hirachand Hargovan Kapadia

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Page 9
________________ भाषान्तरम् पर्युषणाष्टाह्निका व्याख्यान ॥ ५ ॥ भावार्थ:-भव्य-भविकजीवोए पर्व दिवसोने विषे पौषधादि करी, तथा ब्रह्मचर्यादिकनुं प्रतिपालन करी, तथा आरंभ-समारंभनो त्याग करी, तथा विशेषपणाथी तपस्या करी पोताना आत्माने सफल करवो तेज मानवजन्मनुं सार्थक छे. वली पण चैत्र मासनी अट्ठाइने विषे तथा आसो मासनी अट्ठाइने विषे उपरोक्त कर्तव्योने | प्रीति सहित विशेषपणे आदरीने स्वात्माने कर्मथकी हलको करवो ते ज सारभूत छे. जे क्रिया करवाथी धर्मनी पुष्टि जेने विषे थाय छे, ते क्रियाने करवाथो पौषध व्रत कहेवाय छे. आवा पौषध व्रतने पर्व दिवसोने विषे तथा अष्टमी-चतुर्दशीने विषे भव्यजीवोए अवश्य करवू जोइए. आवी रीते आगम-सिद्धांतने विषे शास्त्रकारमहाराजाए कहेल छे. ___ तथा पर्वने दिवसे ब्रह्मचर्य- पालन करवं, आरंभादिकनो त्याग करी अनारंभी थएँ, तपस्यादिक करवी, प्रथम जे प्रकारे तपस्या करता होय ते थकी पण विशेष करवी, उपवासादि तपस्या पण यथाशक्ति करवी, चैत परिपाटि करवी, समग्र साधुने नमस्कार करवा; तथा निरंतर सुपात्रदान, देवगुरुपूजा तथा धर्म-अनुष्ठानादि प्रथम जेवी रीते करता होय ते थकी पर्व दिवसोने विषे अधिक कर. आदि शब्दथकी स्नात्र वगेरे भणावq. का छे के " जश् सव्वेसु दिणेसु, पालह किरियं तओ हवइ लढें । जइ पुण तहा न सकह, तहवि हु पालिज्ज पव्वदिणं ॥१॥"

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