Book Title: Paryushanasthahnika Vyakhyan
Author(s): Manivijay
Publisher: Hirachand Hargovan Kapadia

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Page 52
________________ पर्युषणा-IST भाषान्तरम् ष्टान्हिका व्याख्यान ॥४८॥ हजार वर्षना उपवासना फळने पामे छ; अने जिनेश्वर महाराजनी स्तुति करतोयको अनंतगुणा फळने पामे छे. | “ सयं पमजणे पुण्णं, सहस्सं च विलेवणे । सयसाहस्सिआ माला, अणंतं गीअवाइए ॥४॥" भावार्थ:-जिनेश्वर महाराजने प्रमार्जन करतां सोगणुं पुण्य उपार्जन याय छे, अने विलेपन करतां हजारगणु पुण्य उत्पन्न थाय छे, तथा पुष्पनी माळा चडावतां लक्षगणुं पुन्य उपार्जन थाय छे. तथा गीतगान करतां तेमज वाजिंत्रने बगाढतां अनंतगणुं पुन्य थाय छे. ते कारण माटे जिनेश्वर महाराजना चैत्यने विषे स्नात्र महोत्सव करवो, तथा अष्टमंगलिक स्थापन करवा, तथा नैवेद्य दौकएँ, तथा अनेक जातिना जात्य चंदन, केसर, पुष्प वगेरे लावीने सकल श्रावक समुदाये एकत्र थइ स्फार संगीतादिक महाआडंबरे करी जैनशासननी उन्नति करवी, तथा चैत्यने विषे वस्त्रादिकना महा ध्वजादिकने चडावां, तथा प्रभावनादि महा महोत्सवादिक कर्तव्योने विस्तारथी पर्व दिवसोने विषे करवां, तेमज पर्युषण महापर्वने विषे विशेषताथी स्वशक्ति अनुसारे करी जैनशासननी उन्नति करवी; कारण के जैनशासनननी उन्नति करनार जीव तीर्थकर मामकर्मने बांधी तीर्थंकरपणुं पामे छे. कर्ष छे के "अपुव्वनाणग्गहण, सुयभत्तीपवयणे पभावणया। एएहिं कारणेहिं, तित्थयरत्तं लहइ जीवो ॥१॥" ॥४८॥

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