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॥ श्री वीतरागाय नमः।
श्री पर्युषणाष्टाह्निका व्याख्यान (भाषांतर)
:भाषांतरकर्ता : श्री मन्मुक्तिविजयजी गणि (श्री मूलचंदजी महाराज) ना शिष्यवर्य श्रीमान् गुलाबविजयजी महाराजना शिष्य
मुनिराज श्री मणिविजयजी महाराज
छपावी प्रसिद्ध करनारशा. हीराचंद हरगोवन कापडीया, भावनगर.
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प्रति ५००]
[आवृत्ति त्रीजी
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पालीताणा-श्री बहादसिंहजी प्री. प्रेस में अमरचन्द बेचरदासने मुद्रित किया.
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आमुख
करुणाना समुद्र श्रीमान तीर्थकर महाराजाए संसारना अंत करवाना परिणामवाला भाविक भव्य जीवोने धर्मसाधन करवा माटे प्रतिदिन फरमान करेलुं छे, छतां पण संसारनी अटपटी जालमां जकडायेला, तथा प्रमादना परवशपणामां मुंजायेला जीवोथी न बनी शके तो पर्वने दिवसे अवश्य धर्मसाधन करवू ज जोइए, छतां पण गाढ कर्मोदयथी पर्व दिवसे पण धर्मसाधन न करी शकाय तो पर्वाधिराज महामांगल्यकारी पर्युषण पर्वने विषे तो जिनेश्वर महाराजनी आज्ञानुं प्रतिपालन करी संपूर्ण नीति-रीतिथी धर्मर्नु आराधन करी मनुष्य-जन्मने सफळ करवा चूकवू जोइए नहि, छर्ता पण बार मासना वार्षिक दिवसोने विषे पण धर्मसाधन कोइपण जीव न करे तो ते निश्चय वीतरागनी आज्ञानो भंग करनार थाय छे. आ वात विसारी देवा जेवी नथी. ____आ मूळ अष्टाह्निका व्याख्यानना कर्ता लघु पोशालना पूज्य श्रीमान् सोमहर्षसूरीश्वरजी महाराजना शिष्यवर्य श्रीमान् उदयसोमसूरीश्वरजी महाराज छे. तेमना उपरथी अमोए घणा ज साधु-साध्वीओनी मांगणीथी भाषांतर बनावेल छे.
मुनि महाराजाओनी संख्या ओछी होवाथी गामेगाम चोमासा पहोंची शके नही, तेथी आ अष्टाद्विका पर्युषण पर्व- भाषातर अष्टाह्निका व्याख्यान पर्युषणना प्रथम त्रण दिवसमां श्रावको पण पर्युषण पर्व- आराधन करे तेवा इरादायी अने ज्ञानभंडारमा एक एक प्रत होय तो दरेक गाममां पर्युषण पर्वमां वांचवामां काम आवे तथा भाषांतर वाचवावाळा साधुओ होय ते पण जे गाममा चोमासु होय त्यां वांची शके तेवी भावनाथी अने उपरा-उपर साधु-साध्वीओनी मांगणीथी बे आवृत्ति
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छपावी प्रगट करवा छतां खलास थइ जवाथी आ त्रीजी आवृत्ति छपाववानी अमारे फरज पडी छे. पण अमारे महादिलगीरी साथे जणावq पडे छे के हालमां कीर्तिदान करवावाळानी संख्या ढगले ढगले वधी पडी छे, पण साचा ज्ञान-दाननी कदर करनारा जैन समाजमा अत्यारे बहुज ओछा जोवामां आवे छे. ___आ चोथी आवृत्ति छपाववामां मासर रोड निवासी शाह मंगळदास चुनीलाले अमारा कह्या विना पण रु. १५०) दोढसो पोतानी माताजी दीवाळीबाना स्मरणार्थे आपी घणी ज उदारता बतावी छे, तेमज बाकी रहेता रुपीया शा. हीराचंद हरगोवन कापडीया भावनगर निवासी हस्तक ज्ञानना आवेल ते तेमणे आप्या छे.
भाग्यशाळी जीवो पैसा आपी अने साधु-साध्वीओनी ज्ञाननी भक्ति करे छे. अमो पण आ प्रत अमूल्य भेट आपीए छीए. छतां पण अमारे महाखेद साथे जणावतुं पडे छे के-केटलाएक साधु-साध्वीओ आ प्रत लइ जइ बुकसेलरोने त्यां वेचे छे अने बुकसेलरो पण पोताना वेचवाना पुस्तकोमां अमारा छपावेला अष्टाह्निका व्याख्यान भाषांतर तथा चोमासी व्याख्यान भाषान्तर साधु-साध्वीओने भेट आप्या छतां बुकसेलरोना पुस्तकोना लीस्टमा किंमतथी वेचाण तरीके छपावेल नामो अमारा जोवामां आवे छे. तो दरेक साधु-साध्वीओने सूचना करवामां आवे छे के-कोइ साधु-साध्वीए आ प्रत पोताना पासे होय तो फरीथी बीजी मंगाववी नही अने बुकसेलरोने वेचाण आपी पापना भागीदार बनवु नहि.
लेखकः
मणिविजय
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। अहम् । ॥श्रीमहर्द्धमान-परमात्मने नमः ॥ पूज्यपादश्रीमन्मुक्तिविजयगणिप्रशिष्यश्रीमन्मणिविजयमुनिसङ्कलितम् पर्युषणाष्टाह्निका-व्याख्यान-भाषान्तरम् ।
- os.
काव्यम्. " देवाः स्युर्वशगा नवाऽपि निधयश्चाष्टौ महासिद्धयो, गेहस्थाः सुरधेनुशाखिमणयो यस्य प्रभावान्नृणां । शिष्टाभीष्टफलप्रदाननिपुणः श्रीवीतरागोदितो, भो भव्या ! भवपारदः प्रतिदिनं धर्मः समाराध्यताम् ॥१॥"
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पर्युषणा
भाषान्तरम्
टातिका
व्याख्यान
॥ २॥
भावार्थ:-हे भव्यजीवो ! भवसमुद्रना पारने प्राप्त करावनार श्रीमान् वीतरागमहाराजे कथन करेला धर्मर्नु तमे आराधन करो. जे धर्मना आराधन करवाथी देवो वशवर्ती थाय छे तथा अष्ट महासिद्धि तथा नव निधि पण प्राप्त थाय छे तथा कामधेनु (देवगाय) तथा कल्पवृक्ष अने चिंतामणिरत्न पण घरमां स्थायी भावने पामे छे. | वली पण सारा सारा इच्छित फलोने आपवामां निपुणभावने पामेला उत्तम धर्मनुं तमे आराधन करो.
यदुक्तम् पुनरपि" जयसिरिवंछियसुहए, अनिट्ठहरणे तिवग्गसारम्मि ।
आलोगपरहिअत्थे, सम्मं धम्ममि उज्जमह ॥ २ ॥” । भावार्थ:-हे महानुभावो! जयश्रीने आपनार अने मनोवांछित सुखने प्राप्त करावनार, तथा अनिष्ट पापादिकने हरण करनार अने त्रिवर्ग (धर्म अर्थ अने काम) आ त्रणेने विषे सारभूत एवा धर्मने विषे सम्यक् उद्यमवाला थाओ. फरी पण का छे के
“ त्रिवर्गसंसाधनमंतरेण, पशोरिवायुर्विफलं नरस्य । तत्रापि धर्म प्रवरं वदन्ति, न तं विना यद् भवतोऽर्थकामौ ॥१॥"
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भाषान्तरम्
पर्युषणाष्टाह्निका व्याख्यान
भावार्थ:--त्रिवर्गना सम्यक् प्रकारे साधन विना मनुष्यनु आयुष्य पशुनी पेठे निष्फल जाणवू, तथा ते धर्म, अर्थ अने कामने विषे पण शास्त्रकार महाराजा धर्मने श्रेष्ठ कहे छेकारण के ते धर्मना आराधन विना अर्थ अने काम उत्पन्न थता नथी. अर्थात् धर्मथकी अर्थ (पैसा)नी प्राप्ति थाय छे, तथा पैसाथकी काम (मननी इच्छा मुजब धारेलां कर्त्तव्यो) सिद्धताने पामे छे.
हवे शास्त्रकारमहाराजा प्राणियोने प्रतिदिवसे करवानां कर्तव्यो कहे छे:
काव्यम्. “ जिनेन्द्रपूजा गुरुपर्युपास्तिः, सत्त्वानुकंपा शुभपात्रदानं ।
गुणानुरागः श्रुतिरागमस्य, नृजन्मवृक्षस्य फलान्यमूनि ॥३॥" भावार्थः-जिनेश्वर महाराजनी अष्टपकारी तथा सत्तरभेदी तथा एकवीशपकारी पूजा करवी १। तथा कांचन-कामिनीना त्यागी तथा षड्जीवनिकायनी दयाना प्रतिपाल, स्वपरने तारनारा, सद्गुरुनी अन्न, पान, वस्तु, पात्र, वस्त्र, कंबल, औषध तथा पुस्तकादिकना आपवा वडे करी विविध प्रकारे भक्ति करवी २ तथा समग्र सच्च (प्राणियो) ने विषे अनुकंपा (दया) धारण करवी ३। तथा उत्तम शुभ पात्रने विषे दान देवू ४। तथा गुणी मनुष्योनी साथे प्रीति करी, तेमना गुणनो पक्षपात करी तेओना यशोगान करवा ५। तथा श्रीमान्
भावार्थ:-जिनेश्वर महादजीवनिकायनी दयाना प्रतिमा विविध प्रकारे भक्ति करार दान देवू ४।।
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पर्युषणा - टा
व्याख्यान
|| 8 ||
000
वीतरागमहाराजे कथन करेल निर्मल सिद्धांतनुं मन-वचन-कायाना योगोने स्थिर करी, सारी रीते श्रवण करवु ६ । आ मनुष्यजन्मरूपी वृक्षना उपरोक्त छ फलो शास्त्रकारमहाराजे कथन करेलां छे. वळी पण कहुं छे के
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पूआ १ पच्चक्खाणं २ पडिक्कमणं ३ पोसह ४ परोवयारो ५ अ । पंचपयारा जस्स, न पयारो तस्स संसारो ॥ १ ॥
35
भावार्थ:- जिनेश्वर महाराजनी त्रिसंध्य पूजा ॥ १ ॥ तथा पञ्चक्खाण ( प्रत्याख्यान ) || २ || तथा द्विकाल (बे काल) ना प्रतिक्रमण ॥ ३ ॥ तथा पौषध ॥ ४ ॥ तथा परोपकार ।। ५ ।। आ पांच प्रकार जे प्राणियोना अंतःकरणने विषे रमी रहेला छे, तेने संसारसमुद्र तरवो दुस्तर नथी, अर्थात् जिनेश्वर महाराजनी त्रिकाल पूजा करनार तथा जघन्यथी नोकारशी तथा उत्कृष्टपणाथी आंबिल, उपवास, छठ, अट्टमादिकनी तपस्या करनार तथा निरंतर बे कालना प्रतिक्रमण करनार तथा पर्वतिथिने विषे पौषध करनार मनुष्यो अल्पकालने विषे संसारसमुद्रना पारने पामे छे.
हवे दिनकृत्यने आवी रीते कही, शास्त्रकारमहाराजा पर्वकृत्यनुं कथन करे छे.
यतः
“पव्वेसु पोसहाइ, बंभअणारंभतवविसेसाई । आसोचित्तअट्ठाहिअ, पमुहेसु विसेसेणं ॥ १ ॥ "
भाषान्तरम्
॥ ४ ॥
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भाषान्तरम्
पर्युषणाष्टाह्निका व्याख्यान
॥
५
॥
भावार्थ:-भव्य-भविकजीवोए पर्व दिवसोने विषे पौषधादि करी, तथा ब्रह्मचर्यादिकनुं प्रतिपालन करी, तथा आरंभ-समारंभनो त्याग करी, तथा विशेषपणाथी तपस्या करी पोताना आत्माने सफल करवो तेज मानवजन्मनुं सार्थक छे. वली पण चैत्र मासनी अट्ठाइने विषे तथा आसो मासनी अट्ठाइने विषे उपरोक्त कर्तव्योने | प्रीति सहित विशेषपणे आदरीने स्वात्माने कर्मथकी हलको करवो ते ज सारभूत छे.
जे क्रिया करवाथी धर्मनी पुष्टि जेने विषे थाय छे, ते क्रियाने करवाथो पौषध व्रत कहेवाय छे. आवा पौषध व्रतने पर्व दिवसोने विषे तथा अष्टमी-चतुर्दशीने विषे भव्यजीवोए अवश्य करवू जोइए. आवी रीते आगम-सिद्धांतने विषे शास्त्रकारमहाराजाए कहेल छे. ___ तथा पर्वने दिवसे ब्रह्मचर्य- पालन करवं, आरंभादिकनो त्याग करी अनारंभी थएँ, तपस्यादिक करवी, प्रथम जे प्रकारे तपस्या करता होय ते थकी पण विशेष करवी, उपवासादि तपस्या पण यथाशक्ति करवी, चैत परिपाटि करवी, समग्र साधुने नमस्कार करवा; तथा निरंतर सुपात्रदान, देवगुरुपूजा तथा धर्म-अनुष्ठानादि प्रथम जेवी रीते करता होय ते थकी पर्व दिवसोने विषे अधिक कर. आदि शब्दथकी स्नात्र वगेरे भणावq. का छे के
" जश् सव्वेसु दिणेसु, पालह किरियं तओ हवइ लढें ।
जइ पुण तहा न सकह, तहवि हु पालिज्ज पव्वदिणं ॥१॥"
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भाषान्तरम्
पर्युषणाष्टान्हिका व्याख्यान
भावार्थ:-हे महानुभावो! यदि सर्व दिवसोने विषे धार्मिक क्रियापोर्नु प्रतिपालन करो तो महा उत्तम छ. यदि पुनः निरंतर ते प्रकारे धार्मिक क्रियाओ करी न शको तोपण पर्व दिवसोने विषे तो जरुराजरुर धार्मिक क्रियाओ करी, स्व-आत्मानो उद्वार करवो तेज मानवजन्मनुं सार्थक छे..
जेम विजयादशमी तथा दीवाली तथा अक्षयत्रीज इत्यादि इहलोक संबंधो पर्वने विषे उत्तम वस्त्रालंकार, आभूषणादि तथा खानपानादि करवामां आवे छे; तेमज धर्मपर्वने विषे विशेष प्रकारे उद्यम करवो. तथा धर्मने विषे पण बाह्य लोकनी अपेक्षावडे करी अन्य लोको पण एकादशो तथा अमावास्यादि पर्वने विषे केटलाक पकारना | आरंभादिकनो त्याग करे छे तथा उपवासादिक करे छे, तथा संक्रांति तथा ग्रहणादि पर्वने विषे स्वशक्ति अनुसारे महादानादिक करे छे, ते कारण माटे श्राद्ध लोकोए पर्वना दिवसो विशेष प्रकारनी धार्मिक क्रियाओवडे करीने आराधवा जोइये; तथा पांच पर्वी तथा पूर्णिमा, अमावास्या सहित छ पर्वी होय: तेमां प्रतिपक्षने विषे उत्कृष्ट त्रण त्रण पर्वी होय छे. वली वर्ष मध्ये पण अष्टाह्निका (अट्ठाइ) तथा चातुर्मासो (चौमासी) वगेरे अनेक पर्यो शास्त्रने विषे कहेला छे. ते महापर्वोने विषे आरंभादिकने सर्वथा त्याग करवो; छतां पण आरंभादिक सर्वथा त्याग करवानी शक्ति न होय तो पर्व दिवसोने विषे थोडो थोडो आरंभ अवश्य त्याग करवो. वली सचिस
आहारादिक जीवहिंसामय होवावडे करी महान् आरंभ कहेवाय छे, माटे सर्व जीवोए पर्व दिवसोने विष सचित्त त्याग करवो. ते माटे कयुंछ के
__" एगग्गचित्ता जिणसासणम्मि, पभावणा पूअपरायणा जे ।
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भाषान्तरम्
पयुषणा-I ष्टान्हिका व्याख्यान
पव्वे न भुत्तुं सचियं सुचित्तं, भवाण्णवं गोयम ! ते तरंति ॥१॥" भावार्थ:-श्रीमान् वीतराग महाराजे कथन करेला निर्मल जैनशासनने विषे शासनोन्नति करवा माटे तत्पर रहेला जे भव्यजीवो मन, वचन, कायाना योगने एकत्र करी एकाग्रचित्तथी परमात्मानो पूजाने करनारा छे, तथा प्रभावनादि कर्तव्यने विषे तत्पर रही जैनशासननी उन्नति करनारा छे, तथा पर्वने दिवसे आहारादिकनो त्याग करनारा छे, तेम सचित्त आहारादिकनो पण त्याग करनारा छे, ते जीवो हे गौतम ! भवसमुद्रना पारने पामे छे ए प्रकारे श्रीमान् महावीर भगवंते गौतमस्वामी महाराजने कहेलुं छे.
आवा प्रकारना वचनोथी निरंतर मुख्य वृत्तिथी श्रावक लोकोए सचित्त आहारनो परिहार करवो. कदाचित तेम करवानी शक्ति न होय तो पर्वने दिवसे तो सचित्त आहारनो जरुराजरुर त्याग करवो. वली पण पर्वना दिवसे स्नान करवू नहि, तथा मस्तक शोधन करावq अने गुंथावq नहि, तथा वस्त्रादिकने धोवा नहि तेमज वस्त्रोने रंगाववां नहि, तथा गाडा तथा हलने खेडवां नहि तेमज मूढकादिकने बांधवा नहि, तथा यंत्रादि जेमके I कोलं, चरखा, मिल प्रमुख चलाववां नहि, वाहनादिकने वहन करवा नहि, दलवू, भरडवू, खांडवु नहि, तेमज चूरवु नहि, तथा पत्र, पुष्प, फलादिकने तोडवां नहि, सचित्त खडी. हमजीका (वर्णिका) तथा माटी इत्यादिकनुं मर्दन करवू नहीं, धान्य, क्षेत्र लणवा वगेरे जq नहि, तेमज गृह तथा दुकानादिकने लिंपवां नहि, तथा माटी वगेरे खोदवी नहि, तथा गृहादिक नीपजाववानो आरंभ करवो नहि वगेरे समग्र आरंभोने पोतानी शक्ति
॥
6
॥
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भाषान्तरम्
पर्युषणाष्टाह्निका व्याख्यान
SSSSSSMAR
अनुसारे त्याग करवा. वळी पोताना कुटुंबादिकना निर्वाह करवा माटे ते आरंभादिक कर्या विना चाली शके तेवू नहि होवाथी गृहस्थीोने पर्व दिवसोने विषे पण केटलोक आरंभ होय छे, परंतु सचित्त आहारनो त्याग करवामां स्वातंत्र्यपणुं होवाथी पर्वने दिवसे सचित्तनो अवश्य परिहार करवो. कदाच गाढ मांदगीना प्रसंगने विषे
औषधादिकना कारणांतरने लइने समग्र सचित्तनो त्याग करवानी शक्ति न होय तो नामग्रहणपूर्वक एकाद अमुक | वस्तुनी छूटी राखी बाकी सर्व सचित्तादिकनो परिहार करवो; तथा आसो मास अने चैत्र मासनी अट्ठाइ आदि पर्व दिवसोने विष पूर्वोक्त विधि विशेष करवो. जे माटे का छे के:
॥८
॥
" संवच्छरचाउम्मासिएसु, अट्टाहिआसु तिहीसु ।
सव्वायरेण लग्गइ, जिणवरपूआतवगुणेसु ॥१॥" भावार्थ:-संवत्सरीने विषे तथा चातुर्मासने विषे तथा अट्ठाइ आदि तिथियोने विषे, भव्यजीवो जे ते सर्व आदरवडे करी जिनेश्वर महाराजनी पूजा तथा तप, गुण, दान, मानादिकने विशेष प्रकारे करवा लागे.
वली सर्व अट्ठाइयोने विषे चैत्र मासनी अट्ठाइ तथा आसो मासनो अट्ठाइ, आ बे अष्टाह्निका शाश्वती छे. ते बे अट्ठाइने विषे वैमानिक देवो पण नंदीश्वरद्वीपने विषे जइ तीर्थयात्रादिक पूजा महोत्सवादि करे छे. जे माटे का छे के:
॥८॥
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भाषान्तरम्
पर्युषणाष्टाह्निका व्याख्यान
॥९॥
“ दो सासयजत्ताओ, तत्थेगा होइ चित्तमासंमि ।
अट्टाहिआइमहिमा, बीआ पुण अस्सिणे मासे ॥१॥ एआओ दोवि सासय,-जत्ताओ करंति सव्वदेवावि ।
नंदीसरंमि खयरा, नरा य निअएसु ठाणेसु ॥ २ ॥" जुयलं ॥ भावार्थ:-चे शाश्वती यात्रा कहेली छे, तेमां एक चैत्र मासने विषे तथा बीजी आसो मासने विषे ॥१॥ आ बने शाश्वती यात्राओ, सर्व देवताओ ते नंदीश्वरादि तीर्थने विषे जइने पूजा महोत्सव वगेरे करे छे तथा विद्याधरो तथा मनुष्यो पण पोताना स्थान प्रत्ये रही महोत्सवादिकने करे छे ॥२॥
ए प्रकारे बे शाश्वती अष्टालिका तथा चार बीजी मली छ अष्टाह्निका कहेली छे. हवे शास्त्रकारमहाराजा छ अष्टाहिकाना स्वरूपने कथन करे छे.
यतः" अष्टाह्निकाः षडेवोक्ताः, कृपावद्भिर्जिनोत्तमैः । तत् स्वरूपं समाकएर्य, सा सेव्या विधिपूर्वकैः ॥१॥"
॥
९
॥
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भाषान्तरम्
पर्युषणा
भावार्थ:-परम कृपाना सागर एवा श्रीमान् जिनेश्वरमहाराजे अट्ठाइ छ कहेली छे, तेना स्वरूपने श्रवण करी ष्टान्हिका INभव्यजीवोए विधिपूर्वक तेनु सेवन करवू. व्याख्यान हवे ते छ अट्ठाइना नामोनुं स्वरूप आ प्रकारे छे. एक चैत्र मास संबंधी अट्ठाइ १। बीजी अषाढ मास
संबंधी अट्ठाइ २। त्रीजी पर्युषण संबंधी अट्ठाइ ३। चोथी आसो मास संबंधी अट्ठाइ ४। पांचमी कार्तिक मास संबंधी अट्ठाइ ५। छट्ठी फागण मास संबंधी अट्ठाइ ६। ए प्रकारे छ अष्टाहिकाने अशाश्वती कहेल छे, जे माटे का छे के:
उक्तं च" तह चउमासिअतिगं, पजोसवणा य तह य इअ इक्कं ।
जिण-धम्म-दिक्ख-कैवल,-निव्वाणासु असासइआ ॥१॥" भावार्थः-चौमासी त्रण, तथा पर्युषणा, तथा जिनेश्वर महाराजना जन्म, दीक्षा, केवल तथा निर्वाण; इत्यादिक कल्याणको वगेरेने अशाश्वता कहेल छे.
जीवाभिगमसुत्रे त्वेवमुक्तम्जीवाभिगमसूत्रने विषे तो ए प्रमाणे का छे के, ते नंदीश्वरद्वीपने विषे घणा भवनपति देवो, तथा व्यंतर
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| भाषान्तरम्
पर्युषणाष्टान्हिका व्याख्यान ॥११॥
देवो, तथा ज्योतिषी देवो, तथा वैमानिक देवो चोमासीनी त्रण अट्ठाइ तथा पर्युषणने विषे अष्टासिका महामहिमाने करे छे. अने तिथि तो प्रत्याख्यान सूर्योदय समये जे होय छे तेज प्रमाण कहेवाय छे तथा चैत्र मासनी अट्ठाइ तथा आसो मासनी अट्ठाइने विषे मोटा विस्तारथी श्री सिद्धचक्रमहाराजना यंत्रनुं आराधन करवू. बाह्यथकी यंत्रना स्वरूपने निरधारी आंतर मनथी ललाटपट्टादि दश स्थानकोने विषे यंत्रनी आकृतिने स्थापीने मन, वचन, कायाना योगोने एकत्र करी ध्यान धारण करवु तथा उत्कृष्ट भावथकी निरंतर तेह- आराधन कर. श्रीमान् श्रीपाल राजा अने मयणासुंदरीनी पेठे सदैव आराधन करवू, जे सिद्धचक्रनुं आराधन करवाथी इहलोक तथा परलोकने विषे सर्वत्रापि सुख थाय तथा तेवी ज रीते त्रणे चोमासीना अट्ठाइना दिवसोनुं आराधन कर. तथा समग्र अष्टाहिकाने विषे अमारीनी उद्घोषणानो पडह वगडाववो, तथा अष्टपकारी, तथा सत्तरमेदी, तथा एकवीश प्रकारी परमात्मानी भक्तिथी पूजा करवी तथा भणाववी. तथा खांडवु, दलवू, पीस, भूमिर्नु खोदवू, वस्त्रादिक धोवं, विषयादिकनुं सेवन करवू-करावq. अने अनुमोदन करवू वगेरे पर्वना दिवसोने विषे विशेष प्रकारे त्याग करवो तथा श्री पर्युषण पर्व- आराधन नीचे लख्या प्रमाणे करवू. प्रथम अमारीना पटहनी उद्घोषणा कराववी १। बीजु साधर्मिक भाइयोर्नु वात्सल्य करवू २। त्रीजुं परस्पर खामणा करवा ३। चोथु अष्टम तपर्नु आराधन करवू ४। पांचमुं चैत्यपरिपाटी करवी. (समग्र जैनमंदिरे दर्शन करवा गमन करवु.) ५ तेमां पण सर्वे साधर्मिक भाइओनुं वात्सल्य करवानी शक्ति न होय तो स्वशक्ति अनुसारे केटलाकर्नु पण कर. शास्त्रकारमहाराजा समानधर्मी धर्म-बांधवोनी प्राप्ति प्रायः करी दुष्पाप्य कथन करे छे. जे माटे का छे के:
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भाषान्तरम्
पर्युषणाष्टाहिका
व्याख्यान
॥ १२ ॥
“ सर्वेः सर्वे मिथः सर्व-संबंधा लब्धपूर्विणः।
साधर्मिकादिसंबंध-लब्धारस्तु मिताः क्वचित् ॥१॥" भावार्थ:-अनादिकालपी अनंता भवो, चोराशी लक्ष जीवयोनिने विषे परिभ्रमणने करनारा आ आत्माए करेला छे. तेमां सर्व जीवो सर्व जीवोनी साथे अनंता संबंधोने पामेला के परंतु साधर्मिक भाइओना संबंधने पामेला जीवो तो क्वचित् गणत्रिना ज होय छे; अर्थात साधर्मिक भाइओना संबंधने पामनारा जीवो थोडा ज होय छे एम श्रीमान् शास्त्रकारमहाराजा फरमान करे छे..
ए साधर्मिक भाइओनी साथे करेली संगति पण महापुन्यने माटे थाय छे, तो तेओने योग्य तेओनी भक्ति करवाथी महापुन्य तथा तेश्रोनी घटित सेवा करवायी महालाभ प्राप्त थाय तेमां आश्चर्य नथी.
यदुक्तम्" एगस्थ सव्वधम्मा, साहम्मिअवच्छलं तु एगत्थ ।
बुद्धितुलाए तुलिया, दो वि अ होइ तुल्लाइं ॥१॥" भावार्थ:-कोइ महापुरुष पोतानी बुद्धिरूपी तुलाने (बाजवाने-कांटाने ) विषे बन्ने पल्लामां जुदी जुदी रीते
॥ १२ ॥
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पर्युषणा
ष्टाह्निका व्याख्यान
॥१३॥
एक बाजु सर्वे धर्मोंने स्थापन करी अने बीजी बाजु साधर्मिक भाइओनी भक्तिने स्थापन करी जो तुलना करे
भाषान्तरम् (तोले) तो बन्ने पल्ला तुल्य थाय, अर्थात् एक माणस सर्वे धर्मोनुं आराधन करे अने बीजो साधर्मिक भाइओनी भक्ति करे तो बन्ने सरिखा लाभने पामे छे; माटे विशेष प्रकारे साधर्मिक भाइओनी भक्ति करवी.
साधर्मिक भाइओनो भक्ति आ प्रकारे करवी-दरेक माणसोए पोताना पुत्रना जन्मने विषे, तथा विवाहादिकने | विषे तेमज बीजा पण सांसारिक कर्तव्योने विषे साधर्मिक भाइओने निमंत्रणा करी उत्तम प्रकारना भक्ष भोजनखानपान करावी, विशिष्ट प्रकारे तांबुलादिक आपी तथा वस्त्राभूषण दानमान वगेरे आपी, आपत्तिने विषे मग्न थयेलाने पोताना घरना धननो व्यय करीने पण तेमनो उद्धार करवो; अने अंतरायकमना उदयथकी वैभवनो क्षय थयो होय तेवा साधर्मिक भाइओने मोटा मने करी घणी लक्ष्मी आपी पूर्वनी हदे (प्रथम जेवी स्थिति होय तेवी स्थितिए) पहोंचाडी तेमनी समृद्धिवाळा करवा, ते ज श्रावकोर्नु परम भूषण छे. वळी जे पोताना साधर्मिक भाइओने विविध प्रकारनी लक्ष्मीयुक्त करता नथी तेश्रोनुं धनाढ्यपणुं शा कामर्नु छ ? अर्थात् काइज कामर्नु नथी. जे माटे का छे के:
उक्तं च"न कयं दीणुद्धरणं, न कसं साहम्मिआण वच्छल्लं । हिअयमि वीयरायो, न धारिओ हारिओ जम्मो ॥ १॥" Al॥ १३ ॥
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भाषान्तरम्
पर्युषणाष्टान्हिका व्याख्यान
॥१४॥
भावार्थ:-प्रबल पुन्यना पूर्ण उदयवडे करी मानवभवने पामी, जे जीवो दीन-दुस्थित प्राणीओना उद्धारने करता नथी तथा साधर्मिक भाइओनी भक्तिने करता कथी, तथा पोताना हृदयकमलने विषे वीतरागमहाराजाने धारण करता नथी ते जीवो हा ! हा ! इति खेदे दश दृष्टान्ते दुर्लभ एवा मानवजन्मने हारी जाय छे.
वळी श्रावकोनी पेठे श्राविकाओने विषे पण न्यूनाधिकता रहितपणे वात्सल्य करवू. श्रीमान् कुमारपाल महाराजाए साधर्मिक भाइयोनी भक्ति करवा माटे प्रतिवर्षे ९२ लक्ष द्रव्यनो जे कर हतो ते मुक्त कर्यो हतो, तथा केटलाक साधर्मिक भाइओने द्रव्यादि सामग्री विना दरिद्र अवस्थावाळा देखी तेश्रोनो उद्धार करवा निमित्ते प्रतिवर्ष पोताना भंडारथकी एक कोटी द्रव्य आपी तेभोनो उद्धार कर्यों तथा धर्म प्राप्त थया पछी कुमारपाळ महाराजाए चौद वर्ष राज्य कर्यु, ते चौद वर्ष दरम्यानमां भग्न साधर्मिक भाइभोना उद्धार करवा माटे चौद कोटी द्रव्यनो व्यय कर्यो, जे माटे का छे के-पुन्यशाळी प्राणीओनी लक्ष्मी धर्ममार्गमां वपराय छे अने पापिष्ठ प्राणीओनी लक्ष्मी पापमार्गमां जाय छे.
यदुक्तम्" भूपानां (क्षत्राणां) हयशस्त्रबंदिषु भवेत द्रव्यव्ययः प्रायशः,
शृंगारे पणयोषितां च वणिजां पराये कृषौ क्षेत्रिणां । पापानां मधुमांसयोर्व्यसनिनां स्त्रीद्यूतमद्यादिषु,
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भाषान्तरम्
पर्युषणाष्टान्हिका व्याख्यान
भूमध्ये कृपणात्मनां सुकृतिनां श्रीतीर्थयात्रादिषु ॥ १॥" भावार्थ:-राजाभोना (क्षत्रिओना) पैसा हस्ति, घोडा तथा शस्त्रोने ग्रहण करवाने विषे तेमज बंदिवानोनीभाटचारणोनी विरुदावलीमा खर्चाय छे, तथा वेश्याओना पैसा शंगारादिक धारण करवामां खर्चाय छे. तथा वणिक (वाणिया) लोकोना पैसा व्यापारने विषे खर्चाय छे, खेडूत लोकोना पैसा खेतीवाडी करवाने विषे विनाश पामे छे, पापिष्ठ माणसोना पैसा मद्य, मांसनी अंदर जाय छे अने व्यसनोओना पैसा परस्त्री, जुगार तथा मद्यादिकने विषे जाय छे, तथा कृपण प्राणीओना पैसा भूमिने विषे रहे छे; कारण के कृपण माणसो अढारे पापस्थानक सेवी पैसा उपार्जन करी ते पैसाने विषे गाढ मूर्छा करी, ते पैताने चूलाने विषे, भूमिने विषे, पाणीआराने विषे, गायने बांधवाना खोला नीचे, तथा खाटलाना पाया विषे, तेमज घरना खूणाने विषे दाटे छे, अने अकस्मात् मरण पामवाथी ते तमाम लक्ष्मी भूमिमां ज रहे छे, अने सुकृति (पुन्यवंत ) पाणीओनी लक्ष्मी तो तीर्थयात्रा, सुपात्रदान, देवगुरुभक्ति तथा साधर्मिक भाइभोनी भक्ति तथा सातक्षेत्र, जीवदया, परोपकार तथा दीन-दुस्थित प्राणिोना उद्धारने विषे व्यय थाय छे.
यतः" ववसायफलं विहवो, विहवस्स फलं तु पत्तविणिओगो । तयभावे ववसाओ, विहवो वि अ दुग्गइनिमित्तं ॥१॥"
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भाषान्तरम्
पर्युषणाष्टाह्निका
भावार्थ:-शास्त्रकारमहाराजा शास्त्रने विषे कहे छे के व्यवसायना फलभूत वैभव छे अने वैभवनो सार सतपात्रने विषे स्थापन कर, ते छे. हवे ते सुपात्रना अभावे व्यापार अने वैभव बन्ने दुर्गतिना हेतुभूत थाय छे.
एवी रीते पोतानी ऋद्धिथकी धर्मनी ऋद्धिनी संपदा उपार्जन थाय छे. अन्यथा धर्मने विषे ऋद्धि नहि खर्चवाथी पापनी ऋद्धि थाय छे, अने ते पापिष्ठ ऋद्धि कहेवाय छे.
व्याख्यान
" धम्मिढी १ भोगिढी २, पाविठ्ठी ३ इअ तिहा भवे इही।
सा भणइ धम्मिही,जा दिज्जइ धम्मकज्जेसु॥१॥ सा भोगिढी गिज्जइ, सरीरभोगंमि जीइए उवओगो ।
जा दाणभोगरहिया, सा पाविठ्ठी अणत्थफला ॥ २॥” जुयलं ॥ भावार्थः-धर्मद्धि १, भोगद्धि २ अने पापद्धि ३ आ त्रण प्रकारनी ऋद्धि कहेलो. छे जे ऋधि धर्ममार्गने विषे वापरवामां आवे ते ऋद्धि धर्मनी ऋद्धि कहेवाय छे ॥१॥ तथा जे शरीरादिकना भोगमां वापरवामां आवे ते भोगनी ऋद्धि कहेवाय छे. तथा जे दान, भोग रहित जे ऋद्धि होय छे ते पापनी ऋद्धि कहेवाय छे.
इत्यादि अनेक दृष्टांतो जाणवा तथा आ पर्युषण महापर्वने विषे आ प्रकारनां कर्त्तव्यो करवा. पोते उपशम
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भाषान्तरम्
पर्युषणा ष्टाह्निका व्याख्यान
॥१७॥
पणुं पामg (उपशांत थर्बु) तथा क्षम. क्षमा राखी क्रोधादिकनो त्याग करवो, बीजाए करेला अपराधने तेमज उपद्रवोने मनमां नहि लावतां शांति राखी परना अपराधने माफ करवो, तथा पोते परना करेला अपराधी पण सामा माणसोनी पासे खमाववा. ए प्रमाणे कल्पसूत्रवृत्तिनां वचनो छे. ते कारण माटे आ पर्युषण पर्वने विषे सर्व जीवोए परस्पर खामणा करवा. जेम चंडप्रद्योतन राजा प्रत्ये चरम राजर्षि श्रीमद् उदायन राजाए सत्य क्षामणां करेलां हतां ते प्रकारे सर्व जीवोए अरसपरस सत्य क्षामणां करवा. हवे जो ते बन्ने मध्ये एक जण क्षमे (शांति राखे). तो तेने ज आराधना थाय अने ते ज आराधक कहेवाय अने जे क्षमा न राखे ते विराधक कहेवाय; ते माटे सब जीवोए आत्माने विषे शांतिउपशमभाव पामी शांतरसमां लयलोनपणुं प्राप्त करवू.
तवृत्तमेवम्चंपा नामनी नगरीने विषे स्त्रीने विषे अत्यंत लोलुपी, (लालसावाळो ) कुमारनंदी नामनो स्वर्णकार ( सोनार ) रहेतो हतो. ते जे जे रूपवती कन्याने देखतो ते ते कन्याओगें पाणिग्रहण पांचसो-पांचसो सोनामहोर आपी-आपीने करतो हतो. एवी रीते पांचसो स्त्रीओनुं पाणिग्रहण करी एक स्थंभनो महेल बनावी इर्षालु एवो ते स्त्रीओनी साथे वसतो हतो. अन्यदा प्रस्तावे पंचशैलद्वीपने विषे हासा ने ग्रहासा नामनी व्यंतरी देवांगनाश्री वसती हती. तेओनो पति विद्युन्माली देव च्यवी गयाथी कोई अमारो स्वामी देवपणे उत्पन्न थाय तो सारं, एवो विचार करी ज्ञानवडे कुमारनंदी स्वर्णकारने स्त्री-लोलुपी जाणीने बन्ने देवांगनाए शीघ्रताथी त्यां आवी पोतार्नु रूप देखाडी तेने अत्यंत मोहित कर्यो; ने बने देवांगनानी प्रार्थना करवा लाग्यो. त्यारे व्यंतरीओए
॥ १७ ॥
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भाषान्तरम्
पर्युषणा
कह्यु के पंचशैलद्वीपने विषे आवजे, एम कहीने गये छते सोनारे राजाने सुवर्ण आपीने, जे मने पंच-|| ष्टाह्निका | शैलद्वीप प्रत्ये लइ जाय तेने कोटी द्रव्य आपुं आवा पटहनी उद्घोषणा करावी. ते समये एक स्थविरनाविक व्याख्यान
(नावनो चलावनार ) पोताना पुत्रने धन आपो सोनारने वहाणमां आरोहण करी समुद्रने विषे घणे दूर लइ
गयो अने नाविके सोनारने कह्यु के आ वडवृक्ष समुद्र कांठांने विषे रहेलो छे । असाध्य छे. ते वृक्षना हेठे ॥१८॥
जेवू वहाण जाय के तुरत तुं वडवृक्षनी शाखाने पकडी लेजे. पंचशैल पर्वतथकी भारंड पक्षिोत्रण पगवाळां इहां आवीने निरंतर रात्रिए सुवे छे. तेना मध्यम पगने विषे वस्त्रवडे करी तुं तहारा शरीरने बांधीने रहेजे. प्रभातकाळने विषे उडीने ते पंचशैल द्वीप प्रत्ये जशे तेथी तुं पण त्यां पहोंचीश. वहाण ते पाणीना भ्रमवाळा महा-आवर्तने विषे पडशे तेथी भांगी जशे. हुं तो वृद्ध छु, तेथी वडवृक्षनी शाखाने विषे लागवा (पहोंचवा) समर्थ नथी; परंतु तुं तो युवान छे तेथी वडवृक्षनी शाखाने लागीने पंचशैल प्रत्ये पहोंची शकीश. आवी रीते नाविकना वाक्य प्रमाणे वर्तीने सोनार पंचशैल द्वीपे गयो, अने त्यां हासा, महासाने मळ्यो. त्यारे तेमणे कयु के अमे बन्ने देवीओ छीए ने तुं मनुष्य छे, तो तहारो संग अमाराथी केवी रीते बनी शके ? माटे तुं फरीथी चंपा नगरीमा जइ इंगित मरणबडे करी अमारुं ध्यान धरीने मरण पामीश तो अमारो स्वामि देव थइश; परंतु आ शरीरवंडे तुं भोग भोगवी शकशे नहि ते माटे अग्नि-प्रवेशादि कर. आवा वाक्यने श्रवण करी घरने विषे
केवी रीते जाउं ? एम तेणे कहेवाथी देवीयोए पाणिपुट ( हस्तसंपुट) ने विषे लइने चंपानगरीना उद्यानने विषे ॐ मूक्यो. हवे ते सोनारने नागिल नामनो श्रावक मित्र छे. तेने सोनारे का के आजे हुं हासा, प्रहासा देवीओ
॥१८॥
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पर्युषणा - ष्टान्हिका
व्याख्यान
॥ १९ ॥
00000
साथै भोगनी वांछाथी इंगित मरणवडे करी मरण पामीश. ते सांभळी नागिल श्रावके कछु के ते तो देवतानी गायन करनारी नाटकणीओ छे, ते माटे स्त्रीओने माटे तुं बालमरण छोडी दे. आवी रीते कह्या छतां पण कामदेवना वशवर्त्तिपणाथी बकरीनी लींडीओनी चिता करी वस्त्रने तेलथकी आर्द्र करी पोताना शरीर प्रत्ये लपटीने (वींटीने) अंगुलथकी अग्नि प्रज्वलन कर्यो. ते देखीने मित्र नागिल श्राद्वे कछु रे ! रे ! मूढ ! हे ! हे ! विषयासक्त ! तु फोगट शा माटे मोह पामेलो छे ? ते देवांगनाओ तो देवताओनी मातंगी (ढेढडी) सरीखी छे; माटे फोगट तूं शामाटे मरे छे ? हे मूढ ! संशयवर्जित श्री वीतरागमहाराजना घर्मनुं सेवन कर के जेथी समग्र सुखने पामे.
यतः
"
जर इच्छह परमपयं, अहवा कित्तिं सुवित्थडं भुवणे ।
59
ता तिलुक्कुद्धरणे, जिणवयणे आयरं कुणह ॥ १ ॥
भावार्थ:- हे जीव ! जो तहारे परमपद ( मुक्तिपद ) पामवानी इच्छा होय तथा त्रण भुवनने विषे विस्तारवाळी कीर्त्ति उपार्जन करवानी अभिलाषा होय तो त्रण लोकना उद्धार करवाने विषे समर्थ एवा श्रीमान् वीतरागमहाराजानां वचनोने विषे आदर कर.
आवी रीते मित्र नागिल श्राद्धे वार्या छतां पण नियाणावडे करी अग्निने विषे प्रवेश करी मरण पामी पंचशैल द्वीपनो स्वामी विद्युन्माली नामे देव थयो. त्यारबाद नागिल श्रावके ते मित्रना करेल कर्त्तव्यथी वैराग्य
भाषान्तरम्
॥ १९ ॥
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भाषान्तरम्
पर्युषणाष्टाह्निका व्याख्यान
॥२०॥
पामी दीक्षा अगीकार करी, व्रतनुं पतिपालन करी, काळधर्म पामी बारमे देवलोके उत्पन्न थयो. अन्यदा नंदीश्वरद्वीप प्रत्ये गमन करतां थका देवताओनी आज्ञा थवाथी हासा अने प्रहासाए विद्युन्माली देवने कर्जा के पटहने ग्रहण कर. एटले ते बोल्यो-अरे ! हुं महारा गलाने विषे पटहने नाखु के ? आवी रीते अहंकार अने हुंकार करनारा विद्युन्मालीना गळाने विषे पटह लाग्यो, अने महेनत करतां छत्तां पण कंठस्थलथकी मुक्त थयो नहि. ते अवसरे ते प्रकारनो देखाव देखी नागिल देवता अवधिज्ञानवडे पूर्वभवन स्वरूप जाणी त्यां आव्यो. जेम घूवड नामर्नु पक्षी सूर्यनां तेजने सहन करी शकतुं नथी तेम विद्युन्माली तेना तेजने सहन करी शक्यो नहि तेथी नासवा लाग्यो; जेथी तेजनुं संहरण करी नागिल देवताए का के-तुं मने ओलखे छ ? विद्युन्माली बोल्यो के इंद्रादिकने कोण ओलखी शकतुं नथी ? पछी श्रावकना रूपने प्रगट करी पाछलो भव देखाडी विद्युन्मालीने प्रतिबोध कर्यो, तेथी ते कहेवा लाग्यो के हुँ मानवभव हारी गयो, हवे हुँ केम क ? त्यारे देवताए कड्युगृहस्थावस्थाने विषे काउस्सग्ग ध्याने रहेला भावयति श्रीमान् वीरपरमात्मानी मूर्तिने कराव (भराव) के जेथी परभवने | विषे बोधीबीजनी प्राप्ति थाय. एवां वचनो नागिल देवताए पोताना मित्रने उंचगतिने विषे स्थापन करवा माटे कह्या. त्यारबाद विद्युन्माली महाहिमवान् पर्वतथकी जातिवंत चंदनने लावी मूर्ति बनावी, प्रतिष्ठा करी, कल्पवृक्षना पुष्पनी माळाथी पूजीने उत्तम चंदनना डाबडामा प्रतिमाने स्थापन करी, डाबडानुं मुख बंध करी समुद्रने विषे जइ गगनमंडळमां अद्धर रह्यो. ते समये समुद्रने विषे एक वहाण छ मासथी उत्पात थवाथो महादुर्दशाने विषे आवी पडेलं. ते उत्पातने संहरण करी विद्युन्माली देवे सांत्रिक (पोतर्वाणक) ने कहा के-आ डाबडाने विषे
बा॥ २० ॥
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पर्युषणा
ष्टान्हिका व्याख्यान
॥२१॥
देवाधिदेवनी प्रतिमा रहेली छे. ते प्रतिमा सहित डाबडाने लइ जइ सिंधुसौवीर नामना देशने विषे, वीतभयपाटण
भाषान्तरम् नामना नगरने विषे चतुष्पथे (चौटाने विषे) उभा रही आ देवाधिदेवनी प्रतिमा छे तेने ग्रहण करो, आवी रीते उद्घोषणा करजे. एम कही देवता स्वस्थाने गयो. पछी ते वणिके ते प्रमाणे कयु. हवे ते वीतभयपाटणने विषे तापसोनो भक्त उदायीराजा तथा अन्य दर्शनीओ पण त्यां आव्या, अने सर्वे पोतपोताना देवने संभारी डाबडा उपर घा करवा लाग्या, तोपण डाबडो नहि उघडतां सर्वे कुहाडाओनी धारा खंडीतपणाने पाम्ये छते सर्वे लोको उदासीन थया, अने मध्याकाळ थयो ते समये प्रभावती राणीए राजाने भोजन करवा निमित्ते दासीने बोलाववा मोकली तेथी राजाए पण कौतुक जोवाने माटे प्रभावती राणीने बोलाववाथी तेणी त्यां आवी अने कहेवा | लागी के-देवाधिदेव अर्हन् विना बीजो देव नथी माटे कौतुक जुओ. एम कही यक्षकर्दमयी अभिसिंचन करी | पुष्पांजली चडावीने बोली के-हे देवाधिदेव अईन् ! मने दर्शन आपो. एवी रीते बोलतानी साथे ज प्रभातकालने विषे जेम कमळ प्रफुल्लित थाय छे तेम डाबडाना संपुटो पोतानी मेळे ज खुल्ला थइ गया अने अम्लान एवा कमलनी माळा सहित प्रतिमा प्रगट थयां. तेथी जैनशासननी घणी ज उन्नति थइ. त्यारबाद ते वणिकनो सत्कार करी ते मूर्तिने अंतःपुरने विषे महोत्सव सहित लइ जइ नवीन जिनमंदिर करावी तेने विषे प्रतिमा स्थापन करी, प्रभावती राणी निरंतर त्रिकाळ पूजन करवा लागी. अन्यदा प्रस्तावे राणीना आग्रहथी राजा वीणा वगाडवा बेठो अने राणी परमेश्वर पासे नृत्य करवा लागी. नाटकने करती वेळाए राणीनुं मस्तक राजाए देख्यु नहि, तेथील क्षोभ पामेला राजाना हाथमांथी वीणा वगाडवानी कंबी पडी गइ; तेथी राणीना नृत्यनो भंग थयो अने राणीने
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पर्युषणाष्टाह्निका
भाषान्तरम्
व्याख्यान
॥ २२॥
क्रोध उत्पन्न थवाथी राजाए सम्यक् प्रकारे तेनुं कारण कयु. एकदा प्रस्तावे पूजानिमित्ते दासीने वस्त्र लाववानु कहेवाथी दासी धोळां वस्त्र लावेल छतां तेने लाल देखी क्रोध करी दासीना कपाळमां आरिसो मारवाथी दासी मरण पामी. त्यारबाद तेज वस्त्र श्वेत देख्यां. ते दुनिमित्तवडे करी तथा मस्तकने नहि देखवाना दुनिमित्तवडे करी पोताना आयुष्यने अल्प जाणी, तथा व्रतनो भंग थयेलो जाणी संसारथकी विरक्त थइ राजाने कड्यु के मने दीक्षा लेवानी रजा आपो. त्यारे राजाए कयु के दीक्षा पाली देवलोकने विषे तुं जाय तो मने बोध करवा आवq. आ प्रमाणे राजाए कह्यु जेथी ते प्रमाणे राजार्नु वचन अंगीकार करी प्रतिमान पूजन करवा देवदत्ता नामनी कुब्जा दासीने भलामण करी उत्सव सहित दीक्षा लीधी, अने अनशन करी कालधर्म पामी सौधर्म देवलोके देवपणे उत्पन्न थइ. त्यारवाद देवताए प्रबोध कर्या छतां पण उदायन राजाए तापसोनी भक्ति करवी ज्यारे छोडी नहि, त्यारे देवताए विचार कर्यों के-अहो ! दृष्टिराग दःखे करीने नाश पामी शके छे. पछी | देवता तापसना रूपने धारण करी दिव्य अमृतफल लइने राजानी सभामां आव्यो, अने राजाए तेने नमस्कार ||
करी आसन उपर बेसार्यों. त्यारबाद तापसे अमृतफल राजाने आप्यु, तेने आस्वादन करवाथी आनंदित थइ राजा | बोल्यो के-आपना जेवा परमगुरु विना सुगंधि अने सुस्वादु फळने बीजो कोण चखाडनार हतो? अर्थात् कोइ ज नहि. त्यारबाद तापसे कयु के-हे राजन् ! हवेथी अमो निरंतर तमोने आवा फळना आस्वादने लेवरावशें, कारण के अमारा आश्रममा आवा हजारो वृक्षो अने फळो छे. ते सांभळी राजा बोल्यो के-मने देखाडो, तेथी तापसरूपने धारण करनार देवता शक्तिवडे राजाने एकाकीपणे दूर लइ गयो. त्यां दूर थकी आश्रमनां वृक्षोने
॥ २२॥
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पयुषणा
ष्टाह्निका व्याख्यान
॥ २३ ॥
SEXOOREET000
सुगंधीवाळा अने मनोहर फळोथी देदीप्यमान देखी राजाए विचार कर्यो के अहो ! अमारो जन्म सफल थयो. आ जन्मपर्यंत आराधन करेला तापस गुरुओ मने आवी रीते उपकार करवा लायक थया, ए प्रकारनो जेटलामां विचार करे छे, तेटलामा देवताए विकुर्वणा करेला मायावी तापसो लाकडीओ लइ चोतरफथी छुट्या, अने मारो रे ! मारो ! आवी रीते बोली राजाने मारवा मांड्यो; तेथी राजा पण भयभ्रांत थइ जीव लइ काकनाशनी पेठे नासवा लाग्यो अने नासतां नासतां देवताए विकुर्वणा करेला साधुओना स्थान प्रत्ये जइने कहेवा लाग्यो केमन सहाय थाओ, महारुं रक्षण करो. तेवा वाक्यने श्रवण करी साधुओए राजाने कधुं के तुं भय पामीश नहि, अमारा पासे तने इंद्र महाराजा सरिखानो पण भय थवानो नथी. आवी रीते कहेवाथी राजा शांति पाम्यो. ते अवसरे साधुओए राजाने धर्मनो उपदेश करवाथी राजाए तापसनी भक्ति छोडी जैनधर्म अंगीकार कर्यो. त्यारबाद देवताए प्रगट थइ पोतानी ऋद्धि देखाडी आहेत् धर्ममां स्थिर करी, विषम अवस्थाने लीधे महा स्मरण करजे, एम कही वचन: आपो स्वर्गलोक प्रत्ये गमन कर्यु. हवे ते समयने विषे गांधार नामनो श्रावक सर्व जग्याए तीर्थयात्रा, चैत्यवंदनादिकनी क्रियाने करतो थको घणा उपवास करवाथी तुष्ठमान थयेली देवीए ताढ्य पर्वत विषे देवताओने वंदन करावी, मनोकामना सिद्ध थाय तेवी एकसो ने आठ (१०८) गुटिका (गोळीओ) आपी. ते गोळीयोमांथी एक मुखने विषे नाखी हूं वीतभयपत्तन प्रत्ये जाउँ, ए प्रकारनुं ध्यान धरवाथी तुरत त्यां गयो त्वां तेने कुब्जा दासीए जीवितस्वामीनी मूर्तिनां दर्शन कराव्यां, अने वंदन कर्या पछी मांदगी प्राप्त वीथी कुब्जा दासीए गांधार श्रावकनी सारखार करी. ते समये पोतानुं आयुष्य अल्प जाणोने
भाषान्तरम्
।। २३ ।।
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पर्युषणा
ष्टान्हिका
व्याख्यान
॥२४॥
समग्र गोळीयो कुब्जा दासीन आपी दीक्षा लीधी. त्यारबाद कुब्जा दासीए एक गुटिकानुं भक्षण करवाथी अत्यंत
भाषान्तरम् सुरूपा थइ. तेथी लोकोने विषे सुवर्णगुलिका आ प्रकारना नामथी प्रसिद्धि पामी. एकदा सुवर्णगुलिकाए विचार कर्यों के स्वामि विनानुं रूप सर्वथा नका, छे. एवी चितवना करी एक गोळीनुं भक्षण कयु अने चौद मुकुट- 10 बद्ध राजाए जेनी सेवा करेली छे एवा चंडप्रद्योतन राजानी स्वामिपणानी वांच्छा करी. आवी रीते यांच्छा करवाथी गोळीना अधिष्ठायक देवताए चंडप्रद्योतनने कहेवाथी चंडप्रद्योतने उदायन राजा उपर दूत मोकल्यो अने सुवर्णगुलिकानी मागणी करी; तेथी उदायन राजाए क्रोध करी तिरस्कार करी दूतने काही मूक्यो. त्यारबाद सुवर्णगुलिकाए तेडाववाथी अनिलवेग हस्ति उपर बेसी चंडप्रद्योतन त्यां आव्यो अने सुवर्णगुलिकाने कडं के तुं चाल. त्यारे तेणे कड्यु के प्रतिमा विना हुं आवीश नहि, माटे आ प्रतिमानी सदृश बीजी प्रतिमा करावी स्थापना करो के ते प्रतिमाजीने लइने जइए. त्यारबाद चंडप्रद्योतन अवंतिने विषे गयो अने ते प्रतिमाना सदृश बीजी प्रतिमा करावी, कपिलकेवली ब्रह्मर्षि पासे प्रतिष्ठा करावी, हस्तिना उपर आरूढ थइ वीतभयपत्तन प्रत्ये | आवी बोजी प्रतिमा स्थापन करी मुख्य प्रतिमा तथा दासीने लइ रात्रिने विषे गुप्तपणे गयो. हवे ते बन्ने जणा विषयासक्त थवाथी ते प्रतिमाजी पूजवा माटे विदिशापूरीनगरीने विषे भायल स्वामी वणिकने अर्पण करी. अन्यदा कंबल शंबल नामना नागकुमार देवता ते प्रतिमा पूजवाने माटे आव्या, अने ते प्रतिमाजीने पाताळने विषे लइ
॥ २४ ॥ जवानी इच्छा करी. ते समये भायल प्रतिमाजीनी पूजा करतो हतो. उतावळथी जेणे अर्ध पूजा करी छे एवा भायलने शंबल कंबल इदना मार्गथी पाताळमां लइ गया. त्यां जिनेश्वर महाराजनी भक्तिथी प्रसन्न थएला
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भाषान्तरम्
पर्युषणाष्टाह्निका व्याख्यान
॥ २५॥
धरणेंद्र प्रत्ये भायल बोल्यो के-महारा नामनी ख्याति थाय तेम करो, तेथी धरणेंद्रे कयु के एम ज थशे. चंडप्रद्योतन राजा विदिशापुरीनगरीने तहारा नामथी देवकुनगर करशे; परंतु अर्द्ध पूजा करेली होवाथी आगामीकाले गुप्तपणे ते प्रतिमानी मिथ्यादृष्टियो पूजा करशे अने ते प्रतिमा आदित्य भायलस्वामी आ छे एम कहीने बहार स्थापन करशे माटे तुं खेद करीश नहि. दुषमकाळना वशवर्तीपणाथी भविष्यकाळे एम ज थशे. त्यारवाद भायल पाछो गयो. हवे वीत्तभयपत्तनने विषे प्रातःकाळे जेनी माला म्लानिपणाने पामी गइ छे एवी मूर्तिने देखी तथा दासीने नहि देखवाथी तेमज हस्तिोना मदने उतरी गयेला देखी. चंडपद्योतन आवीने प्रतिमा तथा दासीने लइ गयो छे एवो निश्चय करी सोल देशनो धणी अने त्रणसो त्रेसठ नगरनो स्वामी श्रीउदायन राजा संग्राम करवा तत्पर थयो थको महासेनादि दश मुकुटबद्ध राजाओ सहित विस्तारवारों सैन्य लइने चाल्यो. मार्गमां गमन करतां उष्णकाळने विषे पाणी नहि मळवाथी सैन्य दुःखी थवा लाग्यु, ते समये राजाए प्रभावती देवीनुं स्मरण करवाथी देवता जल्दीथी आव्यो अने मार्गने विषे जूदे जूदे स्थळे त्रण सरोवरने पाणीथी भरपूर करी स्वर्गलोकने विषे गयो. अनुक्रमे चंडपद्योतन तथा उदायन राजाना सैन्य एकत्र थयां, ते अवसरे उदायन राजाए चंडप्रद्योतनने | कहेवराव्यु के-वैर तो आपणा बन्नेने छ तेमां हजारो अने लाखो माणसोनो संहार फोगट : करवो सारो नहि; माटे आपणे बन्ने जणाए ज युद्ध कर. सैन्यना माणसो तटस्थ रहीने आपणा युद्धने देखे. चंडप्रद्योतने तेम करवानी हा पाडवाथी उदायन राजाए कहेवराव्युं त्यारे चंडपद्योतने कह्यु के-रथ उपर वेसीने युद्ध करवू. ते उदायन राजाए कबुल कयु अने सत्य प्रतिज्ञावाळो उदायनराजा प्रभातकालने विषे शस्त्र सजी, सन्नद्धबद्ध थइ रथ उपर बेसीने
॥ २५ ॥
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भाषान्तरम्
पर्युषणाष्टान्हिका व्याख्यान
॥२६॥
युद्धभूभिने विषे आव्यो. ते अवसरे प्रतिज्ञानो भंग करी अनिलवेग हस्तिना उपर बेसीने आवेल चंडप्रद्योतनने जाणी, बाणनी श्रेणीथी हस्तिना पगने विधि नाखी, नीचे पाडी, तेना दंतशूळ उपर पग मूकी, चंडप्रद्योतनने पकडी बांधीने तेना कपाळना विषे मारी दासीनो पति एवा वर्णाक्षरनु चिह्न कयु. त्यारबाद ते प्रतिमाजीने लेवाने माटे उदायन राजा विदिशापुरीनगरीने विषे गयो, अने घणा उपाय करवाथी पण लेशमात्र प्रतिमाजी नहि चालवाथी उदायन राजाने खेद थयो. ते समये प्रतिमाजी बोल्या के-वीतभयपत्तनने विषे धूलनी वृष्टि थशे, तेथी महारे अहींथी आवq नथी, तेथी उदायन राजा पाछो वळ्यो. मार्गने विषे वर्षाऋतु शरु थवाथी सैन्यनो पडाव नाखी त्यां ज रह्यो. वार्षिक पर्वने विषे (संवत्सरीने दिवसे) उदयनराजाए उपवास करवाथी रसोयाए चंडप्रद्योतनने का के-आजे तमारा माटे रसोइ शुं करूं ? रसोइयाना वाक्यने श्रवण करी चंडप्रद्योतने विचार कयों के कोई दिवस रसोइने माटे मने पूछता नथी अने आजे पूछवाथी अन्नने विषे झेर नाखी मने मारी नाखवो हशे ! एवो विचार करी रसोयाने पूछयु के-आजे बीजा कोइ केम जमनार (भोजन करनार) नथी के शुं? त्यारे रसोइयाए का के-आजे वार्षिक पर्व होवाथी राजा आदि सर्वेने उपवास छे तेथी चंडप्रद्योतने का के-अहो! ते ठीक स्मरण कराव्यु, मने खबर नहोती के आजे वार्षिक पर्व छे. आजे तो महारे पण उपवास छे; कारण के महारा मातापिता पण श्रावक हता. आवी रोते कपटथी चंडप्रद्योतने उपवास करेलो जाणी उदायनराजाए विचार कर्यो केतेनुं श्रावकपणुं तो में जाण्यु; परंतु जो एम ज कहे छे तो नामथो पण श्रावकपणुं प्राप्त करेल आ साधर्मिकने . * प्रतिमामा अधिष्ठित थइ देव बोल्यो.
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पर्युषणा - ष्टान्हिका व्याख्यान
॥ २७ ॥
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बंधन करी राखवाथी महारुं संवत्सरी प्रतिक्रमण शुद्ध थवानुं नथी; तेथी चंडप्रयोतनने बंधनमुक्त करी, खमावीने कपाळने विषे लखेला वर्ण ढांकवा माटे पोतानो मुकुटपट्ट आपी, मालवो देश अर्पण करी, चंडप्रयोतनने विदाय कर्यो. उदयनराजाने आराधकपणुं प्राप्त थयुं कारण के तेने उपशांतपणुं प्राप्त थयुं हतुं; परंतु चंडप्रद्योतनने उपशांतपणुं प्राप्त नहि थवाथी तेने आराधकपणुं थयुं नहि. कोइक ठेकाणे बनेने आराधकपणुं होय छे ते कहे छे
यतः
“ अन्यदा श्रीमहावीरः, कौशांब्यां समवासरन् । वंदितुं तत्र चंद्रार्को, स्वविमानं समीयतुः ॥ १ ॥ तथापि चंदना ज्ञात्वा, दक्षास्तसमयं ततः, निर्गतागान्निजस्थाने, तत्रैवास्थात् मृगावती ॥२॥ " भावार्थः — अन्यदा प्रस्तावे श्रीमान् महावीरमहाराजा कौशांबीनगरीने विषे आवीने समवसर्या, अने ते समये भगवानने वंदन करवा माटे सूर्य अने चंद्रमा पोताना मूळ विमाने आव्या. ते समये दक्षा एवी चंदना प्रवर्त्तनी संध्यानो समय जाणी उपाश्रये आवी, प्रतिक्रमणादिकनी क्रिया करी शयन कर्यु, अने मृगावती साध्वी प्रभुनी वाणी सांभळाने विषे तत्पर होवाथी त्यां रही; कारण के सूर्य-चंद्रमा मूल विमाने आववाथी प्रकाशने लहने थल रात्रिने पण जाणी नहि.
- एकदा प्रस्तावे श्रीमन् महावीरप्रभु ग्रामानुग्राम विहार करता कौशांबीनगरीने विषे आवीने समवसर्या वे समने त्रीजी पोरिसीने विषे भगवाननी वाणी श्रवण करवा निमित्ते सूर्य अने चंद्रमा पोताना मूल विमाने आव्या,
भाषान्तरम्
॥ २७ ॥
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पयुषणा - ष्टादिका व्याख्यान
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अने सूर्यना विमानना तेजथकी रात्रि थयेली पण कोइए जाणी नहि. ते समये संध्याकाळ जाणी चंदना प्रवर्त्तनी उपाश्रये जह प्रतिक्रमणादि सर्व क्रियाने करी सती. त्यारबाद सूर्य-चंद्रमा पोताना स्थाने गया ने अंधकार थवाथी मृगावती भय पामीने उपाश्रये गइ; अने इर्यापथिकि प्रतिक्रमी, प्रतिक्रमणने करी स्वामिनी चंदनाने कहेवा लागी के हुं भोळी आटली वेळा त्यां रही. ते समये चंदना प्रवर्त्तनीए करूं के मोटा कुळने विषे उत्पन्न थयेलां एवां के जेमणे दीक्षा ग्रहण करेल छे, तेमने रात्रिने विषे उपाश्रय बहार रहेवुं युक्त नथी. ते अवसरे मृगावती पगने विषे पडीने बोली के आ महारो अपराध अजाणतां थयो छे माटे मने क्षमा करो. फरीथी ए प्रकारनो अपराध नहि करूं. ते समये भगवती चंदनाने निद्रा आवी. आ समये मृगावती पोताना कर्मनी निंदा-गहने करती सर्व शुभाशुभ कर्मनो नाश करी केवलज्ञान पामी. ते प्रस्तावे त्यां सर्पने आवतो देखीने मृगावतीए चंदनानो हस्त जरा दूर कर्यो, तेथी चंदना अकस्मात् जागृत थवाथी बोली के हे सुभगे । तें म्हारो हाथ दूर केम कर्यो ? त्यारे मृगावती कां के सप आवे छे तेथी. सहसा चंदनाए क के अगाढ अंधकारने विषे तें सर्पने केम जाण्यो ? मृगावतीए कहां के ज्ञानवडे करीने, चंदनाए कहां के शुं ज्ञान प्रतिपाति के अप्रतिपाति ? मृगावतीए की स्वामिनी ! तमारा प्रसादथी अप्रतिपाति आवा वाक्यने श्रवण करी हा ! हा! में केवलीनी आशातना करी! एम कही चंदना मृगावतीना चरणकमळमां पडी अने खमावतां ज केवलज्ञान उत्पन्न थयुं, माटे सर्व जीवोए आवा प्रकारनो मिच्छा मि दुकडं देवो; परंतु क्षुल्लक साधु तथा कुंभारना जेवो मिच्छामि दुक्कडं देवो नहि. तथाहि कोइक गामने विषे कोइक मुनि ग्रामानुग्राम विहार करतां कुंभारनी रजा लइ तेमनी शालाने विषे भूमि प्रमार्जन करी एक देशने विषे रह्या. हवे
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भाषान्तरम्
॥ २८ ॥
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पर्युषणाष्टातिका
व्याख्यान
॥ २९ ॥
ते मुनिनो एक लघु शिष्य क्षुल्लक साधु नवीन पकावेला घडाने देखी कांकरां नारखी घडाने काणा पाडवा लाग्यो. तेने कुंभकारे देखवाथी मधुर वाणीवडे करी निवार्यों त्यारे मिच्छा मि दुक्कडं आप्यो, अने ते अवसरे ते कृत्य करवाथी
भाषान्तरम् निवृत्त थयो. वळी पण एक दिवस तेवी ज रीते घडाने काणा करता क्षुल्लक साधुने जोयो अने अत्यंत वार्या छतां पण निरंतर तेम करतो देखी कुंभकारे कांकरो लइ काननी बुट्टिमां सज्जड दबाववाथी पीडा पामेला क्षुल्लक साधुए कुंभकारने मिच्छा मि दुक्कडं देवा मांड्यो. तेवी रीते आ पर्युषण महापर्वने विषे क्षुल्लक साधुना जेवो मिच्छा 18 मि दुक्कडं देवो नहि, परंतु प्रथमना जेवो मिच्छा मि दुक्कडं आपलो; तथा पर्युषण महापर्वने विषे अवश्य अट्टम करवो. ते माटे कड्यु छ के-पाक्षिकतप एक उपवासना प्रमाणवाळो कहेलो छे, चतुर्मासी तप बे उपवास (छ8) ना | प्रमाणनो कहेलो छे तथा वार्षिक तप त्रण उपवास ( अट्ठम ) ना प्रमाणनो जिनेश्वरमहाराजे कोलो छे. अट्ठम तप करवानी शक्ति न होय तो छ आयंबील करवां, ते पण करवानी शक्ति न होय तो नव नीवी करवी, ते पण करवानी शक्ति न होय तो बार एकासणा करवा, ते पण करवानी शक्ति न होय तो चोवीश बेसणा करवा, तथा समग्र तप करवानी शक्ति न होय तो ते तप पूर्ण करवा माटे छ हजार स्वाध्याय ध्यान करवू, तेम पण न बनी शके तो नवकारवाली (साठ) जपमाला गणवी एटले नमस्कार महामंत्रनी बाधापारानो साठ ६० नवकारवाली गणवी, एवी रीते पण तप पूर्ण करवो. जो एम करवामां न आवे तो जिनेश्वरमहाराजनी आज्ञानु उल्लंघन कर्यानो महादोष प्राप्त थाय. आ प्रस्तावे अहीं प्रसंगोपात नवकारशी आदि तपोना फळने देखाडे छे. एक सो वर्ष सुधी नारकीना | जीवो अकाम निर्जरावडे जेटला पापकर्मने खपावे छे तेटला पापकर्मने नवकारशीना प्रत्याख्यानवडे करी खपावाय
॥ २९ ॥
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भाषान्तरम्
पर्युषणाष्टान्हिका व्याख्यान
छे ॥१॥ पोरिसीना प्रत्याख्यान करवाथी एक हजार वर्षना पापकर्मने खपावे छे ॥२॥ साढपोरिसीना प्रत्याख्यान करवाथी दश हजार वर्षना पापकर्मने खपावे छे ॥३॥ पुरिमना प्रत्याख्यान करवाथी एक लक्ष वर्षना पापकर्मने खपावे छे ॥ ४॥ अचित्त जळ संबंधी एकासणाना प्रत्याख्यान करवावडे करी दश लक्ष वर्षतुं पापकर्म हणाइ जाय के ॥५॥ नीवीना प्रत्याख्यान करवाथी एक कोटी वर्षतुं पापकर्म क्षीण थाय छे ॥६॥ एकलठाणाना प्रत्याख्यान करवाथी दश कोटी वर्षनुं दुष्ट कर्म नाश पामे छे ॥ ७॥ एक दत्तीना प्रत्याख्यान करवाथी सो कोटी वर्षमुं पापकर्म दर थाय छे ॥८॥ आंबेल तपनुं प्रत्याख्यान करवाथी एक हजार कोटी वर्षनु पापकर्म नाश थाय के ॥९॥ उपवास तपर्नु प्रत्याख्यान करवाथो दश हजार कोटी वर्षनुं पापकर्म प्रशांत थाय छे ॥१०॥ छ? तपनुं प्रत्याख्यान करवाथी एक लक्ष कोटी वर्षनुं पापकर्म नाश थाय छे ॥ ११ ॥ अट्ठम तपनुं प्रत्याख्यान करवाथी दश लक्ष कोटी वर्षनं पापकर्म विनाशभावने पामे छे ॥ १२ ॥ स्यारवाद एक एक उपवासनी वृद्धि करवायी दशगुणो आंकडो वधारवो. अट्ठमर्नु तप करवाथी नागकेतु ते ज भवने विषे प्रत्यक्ष-प्रगट फलने पाम्यो एवी रीते सर्व तप शल्य रहितपणे करचो; कारण के शल्य सहित दुष्कर तप करवामां आवे तोपण निरर्थक छे. तेना उदाहरण सांभळो. अहींथी एंशीमी चोविशीने विषे कोइ एक राजाने घणा पुत्रो हता, परंतु एक पण पुत्री नहोती; तेथी सेंकडो उपायो करवाथी एक पुत्री थइ. हवे ते पुत्रीनो स्वयंवर मंडपने विषे वरेलो वर दुर्दवथकी चोरीने विषे मरण पाम्यो, तेथी सुशोला सतीओने विषे प्राप्त छे रेखा जेनी एवी सती श्रावकधर्मने विषे पूर्ण प्रीतिवाळी थइ काळ निर्गमन करवा लागी.
डा तीर्थकरमहाराज पासे दीक्षा अंगीकार करी दीक्षा पाळवा लागो. एकदा प्रस्तावे लक्ष्मणा साध्वीए |
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भाषान्तरम्
पर्युषणाष्टान्हिका व्याख्यान
॥३१॥
चकली-चकलाने मैथुनसेवन करतां देखी विचार कर्यो के-जिनेश्वरमहाराजे मैथुन करवानी आज्ञा केम नहीं आपी होय? हा, युक्त ज छे. जिनेश्वरमहाराज पोते अवेदी छे, ते वेदिना दुःखने जाणे नहि. आवी रीते विचार कर्यो. क्षणमात्रमा साध्वीने पाछो पश्चात्ताप थयो के-अहो में माठी चितवना करी आवी रीते आत्मनिंदा करवा लागी, अने विचार कयों के हवे आ दुष्कर्मनी आलोचना हुँ केवी रीते गुरुमहाराज पासे लइ शकीश ? इत्यादिक अनेक प्रकारे लज्जा उत्पन्न यइ, छतां पण विचार कर्यों के आलोचना लीधा सिवाय कोइ पण प्रकारे सशल्य जीवोनी शुद्धि यती नथी, एम विचारी लज्जा छोडी, आलोचना लेवा माटे पोताना आत्माने उत्साहित करी जेवी चालवा मांडी. तेवामां पगने विषे कांटो भांगवाथी अपशुकन थया जाणी क्षोभ पामी अने गुरुमहाराज पासे जइ कह्यु के-जे कोइ आवी रीते दुर्ध्यान करे तेनुं शुं प्रायश्चित ! ए प्रकारे बीजानुं नाम दइ लक्ष्मणा साध्वीए पोताना निमित्ते आलोचना लीधी, पण लज्जाथी तथा महत्त्वनी हानि थवाना भयथी साक्षात् पोतानुं नाम दइ आलोचना लीधी नहि. हवे ते प्रायश्चित्तने ठेकाणे पचास वर्ष सुधी महा दुष्कर तपने तप्या ते नीचे प्रमाणे कहे छ:____ उक्तं च- "छठुटुमदसमदुवालसेहिं, निविगश्एहिं १० दसवरिसे ।
तहय खवणएहिं दुन्नि अ, दो चेव य भुजिएहिं (च)॥१॥ मासक्खमणेहिं सोलस, वीसं वासाइं अंबीलेहिं च । लक्खण अजा एवं, कुणइ तवं वरिसपन्नासं ॥२॥
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भाषान्तरम्
पर्युषणाष्टाह्निका
व्याख्यान
३३॥
आवस्सयमाइयं, किरियकलावं अमुच्चमाणी।
अदीणमाणसाए, एस तवो तीइ अणुचिन्नो ॥३॥" भावार्थ:-छद्रु, अदुम, दशम, द्वादश एटले बे, त्रण, चार, पांच वगेरे उपवासो कर्या तथा विगयनो त्याग करी दश वर्ष सुधी नीवीयो करी तथा बे वर्ष निर्लेप चणानो तथा बे वर्ष अँजेला चणानो आहार कर्यो. सोळ वर्ष सुधी मासक्षमण कर्या अने वीश वर्ष आंबेल काँ. एवी रीते लक्ष्मणा साध्वीए पचास वर्ष सुधी तप कर्यो, | अने तप तपता पण आवश्यकादिकनी क्रियाने नहि छोडती तथा दीन दुःस्थित मनने नहि करती अर्थात् तपना परिश्रमने बीलकुल मनने विषे नहि लावती खेदनो त्याग करी उत्तम मनवडे करी लक्ष्मणा साध्वीए उपर प्रमाणे तप कर्यो.
एवी रीते उपर प्रमाणे दुष्कर तपने तपतां पण लक्ष्मणा साध्वी शुद्ध थइ नहि; परंतु आर्तध्यानथी मरण पामी, दासदासीना असंख्याता भवोने विषे अनुभवेलुं छे दुःख जेणे एवी ते लक्ष्मणा साध्वी पद्मनाभ तीर्थकर महाराजना (श्रेणिकराजानो जीव जे आवती चोवीशीमां प्रथम तीर्थंकर थनार छे तेमना) शासनने विषे मुक्ति | पामशे. ते माटे का छे के:
यदुक्तम्"ससल्लो जइवि कठ्ठग्गं, घोरं वीरं तवं चरे। दिव्वं वाससहस्सं तु, तओ तं तस्स निष्फलं ॥१॥"
भावार्थ:-जेना हृदयने विषे शल्य रहेलं छे, ते महा कष्टकारक अने घोर वीर तपने देवताना हजारो वर्ष
॥ ३२ ॥
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पर्युषणा -
ष्टान्हिका व्याख्यान |
॥ ३३ ॥
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सुधी तपे तोपण सर्व तेनो तप तथा कायकष्टादिक करेल क्रिया निष्फल थाय छे. ते माटे प्रथम शल्यने दूर करी पवित्र मने प्रायश्चित्त लड्ने तप करवो के जेथी आत्मानी शुद्धि थाय. तपना प्रभावथी प्राणीओ स्वर्ग अने अपवर्ग पदने ( स्वर्ग - मोक्ष) ने पामे छे; माटे उत्तम जीवोए तप करवो.
हवे तप करतां स्नेहना वशथकी जो कोई निषेध करे तोपण तपने छोडी देवानी बुद्धि धारण करवी नहि. श्रीमान् भरत महाराजाना पुत्र सूर्ययशाराजानी पेठे. तेनी कथा आ प्रमाणे:
अयोध्यानगरीने विषे सूर्ययशा नामनो राजा राज्य करतो हतो. ते त्रण खंडनी भूमिनो स्वामी हतो, तथा नीतिनो प्रतिपालक तथा अखंड शासनवाळो हतो. तेमणे वैरी - शत्रुओने पोताना स्वायत्त करेला हता, तथा इंद्रमहाराजे अर्पण करेल मुकुटने मस्तकने विषे धारण करवाथी ते मुकुटना माहात्म्यथकी सूर्ययशा देवताओने पण सेवा करवा लायक थयो. ते राजाने राधावेध साधवाना निमित्तथकी प्राप्त थयेली कनक नामना विद्याधरनी पुत्री जयश्री नामनी पट्टराणी हती. ते अने बीजी पण राजाने घणी ज राणीओ हती. ते राजा निरंतर चार पर्वी विशेषथी अष्टमी चतुर्दशीने दिवसे व्रत - प्रत्याख्यान पौषधादिक क्रियानुं तप सहित आराधन करतो हतो. पोताना जीवितव्यest पण पर्वनो आदरसत्कार तेमना चित्तने विषे अत्यंत वल्लभ हतो, ते कारण माटे राजा स्वजीवितव्यथकी पण पर्वनुं रक्षण विशिष्ट प्रकारे करतो हतो. एकदा प्रस्तावे सौधर्मदेवलोकना स्वामी सौधर्म इंद्र पोतानी सुधर्मा नामनी समाने विषे बेठो थको नाटारंभादिकने देखतो हतो. ते अवसरे इंद्रमहाराजनुं तृतीय अवधिलोचन भारतभूमिने
भाषान्तरम्
11 33 11
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भाषान्तरम
पर्युषणाष्टाह्निका व्याख्यान
॥३४॥
निहाळतं हतुं. आ समये सूर्ययशाराजानो धर्मने तथा पर्वने विषे अविचळ प्रेम अने निश्चयपणुं जाणी इंद्रमहाराज | चमत्कार पाम्या. ते समये समग्र विश्वने वशवर्ती करवानुं सामर्थ्यपणुं धारण करनारी उर्वशी देवीए अकस्मात् मस्तक कंपायमान करवानुं कारण इंद्रमहाराजने पूछयु के-हे स्वामिन् ! हालमा मस्तक कंपायमान करवानुं कारण | तो काइ पण देखी शकातुं नथी तो क्या प्रकारना निमित्तथी तुष्टमान थयेला नाथे (आपे) मस्तक कंपायमान
कर्य ? ते समये इंद्रमहाराज बोल्या के-में सांपतकाळे ज्ञानदृष्टिवडे करीने भरतक्षेत्रने विषे श्रीमान् ऋषभदेवस्वामीनो | पौत्र (पुत्रनो पुत्र) अने भरतचक्रवर्तीनो पुत्र अयोध्यानगरीनो स्वामी सूर्ययशा राजा साविकोने विषे शिरोमणि दीठो, अने ते अष्टमी चतुर्दशीने विष तथा पर्वने विषे तप वगेरे धार्मिक क्रिया करे छे, ते थकी देवता बहु यत्ने करीने पण चलायमान करवा समर्थमान नथो. जो सूर्य पूर्व दिशाने अतिक्रमण करी पश्चिम दिशाने विषे उदय पामे, तथा निश्चल मेरु वायुथी कंपायमान थाय, तथा समुद्र मर्यादाने मूके, तथा कल्पवृक्ष निष्फल थाय; | तोपण सूर्ययशा राजा कंठगत प्राण थये छते पण जिनेश्वर महाराजनी आज्ञानी पेठे करेला निश्चयने छोडे तेम | नथी. एवा इंद्रमहाराजाना वाक्यने श्रवण करी किंचित् मनमां विचार करी प्रत्युत्तर देवा लागी के-हे स्वामिन् ! युक्त-अयुक्तने जाणनार तमे मनुष्यने विषे आवा प्रकारना निश्चयनी शुं प्रशंसा करो छो ? जे सात धातुथकी उत्पन्न थयेला शरीरने धारण करवावाळो अननो कीडो तेने देवता पण चलायमान करवा शक्तिमान नथी, आवा तमारा वचन उपर कोण श्रद्धा धारण करे ? म्हारा गानरसपूर वडे करी कोना कोना विवेक प्रमुख गुणो नाश पामता नथी-अपि ते सर्वेना गुणो नाश पामे छे ते माटे हुँ त्यां जइ तेने शीघ्रताथो व्रतथकी भ्रष्ट करीश. आ
॥ ३४॥
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पयुषणा
ष्टाह्निका
व्याख्यान
॥३५॥
प्रकारनी प्रतिज्ञाने करी रंभा सहित उर्वशी हस्तकमळने विषे वोणाने धारण करी स्वर्गलोकनी भूमि उपर उतरी, अने अयोध्यानगरीना निकट उद्यानने विषे हर्षने उत्पन्न करनारा श्रीमान् ऋषभदेवस्वामीना चैत्यने विषे अत्यंत
भाषान्तरम् अद्भूत रूपने धारण करवा लागी. तेना गानतानरसमां मोहित थएला पक्षोओ तथा मृगलांओ तथा सो वगेरे चित्रमा चित्रेला होयनो शुं ? पापागथी घडेला होयनी शुं ? एवा निश्चल नेत्रो करीने रहेला छे. ए समये | सूर्ययशाराजा अश्वने वहन करी पाछा वळता मार्गने विषे ते बन्नेना मधुर गीतगानतान ध्वनिने श्रवण कर्यो. ते समये घोढाओ, हस्तिो अने पायदलो त्यांथकी आगळ एक पगलुं मात्र पण भरवा समर्थ थयां नहि. आवा प्रकारना स्वरूपने देखी राजाए मंत्रीने आदर सहित कह्य के-हे मंत्रिन् ! संसारने विषे सुखने आपनार नादना सिवाय बीजो एक पण देखी शकवामां आवतो नथी, जे नादना वशवर्तीपणाथी पशुओ पण मोह पामी गया छे. किंबहुना. नादथी देव, दानव, राजा अने स्त्रियादिक सर्वे पाये करी वशवर्ती थाय छे. ते माटे आपणे पण ऋषभदेवस्वामीने नमस्कार करवा माटे चैत्यने विषे जइए अने त्यां जइ गीतगानना तानमाननु आपणे आस्वादन करीए. ए प्रकारे मंत्रीने कही ते गीतगानमां मोहित थएलो राजा मंत्री सहित जिनेश्वर महाराजना मंदिरने विषे गयो. त्यां हस्तने विषे वीणा धारण करी गीतगानने करनारी साक्षात् कामदेवनी भार्या होयने शुं? एवी दिव्य सौंदर्य संयुक्त महास्वरूपवान बे कन्याओने स्नेहथी देखी. ते बन्ने कन्याओए चक्षुथकी मूकेला कामवाण कटाक्षथी हृदयने विषे विधाएलो राजा चिंतवना करवा लाग्यो. अहो ! आ बन्नेनुं अतिशय अद्भूत रूप कोइक पुन्यशाली जीवना भोगमा लागशे. त्यारवाद राजा वारंवार ते बन्नेने विषे दृष्टिने फेंकतो श्रीमान् युगादि ItHI || ३५॥
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पर्युषणा-I
भाषान्तरम्
व्याख्यान
॥३६॥
देवना चरणकमळने नमस्कार करी चत्यथकी बहार नीकळी, बहारना प्रदेशमार्गने विषे बन्नेना कुळादिक जाणवा माटे मंत्रीने आदेश कर्यो. मंत्री पण ते बन्नेना समीपे जइ अमृत समान मधुर वाणीवडे करी संभाषण करी पूछवा | लाग्यो के-हे कन्याओ! तमे कोण छो? तमारो स्वामी कोण छे ? तमारु आवागमन अहीं शा कारणथी थयुं छे। | ते सर्व मने कहो. ए प्रमाणे मंत्रीना वाक्यने श्रवण करी ते बन्नेमांथी एक बोलवा लागी. अमे बन्ने मणिचूड नामना विद्याधरराजानी पुत्रोओ छोए. बाळकाळथो ज कळाने विषे आदरवाळी छोए. अनुक्रमे अमो बन्नेने यौवन अवस्थाने पामेल देखी अमारो पिता वरनी चिंता करवा लाग्यो, परंतु अमो बन्ने अमारा लायक वर नहि प्राप्त थवाथी दरेक जूदा जूदा स्थळे श्री जिनेश्वरमहाराजने नमस्कार करी अमारो जन्म सफळ करीए छीए; कारण के फरीथी मानवभत्र क्यां प्राप्त थवानो हतो? वळी आ अयोध्यानगरी पण तीर्थभूत छे. ते कारण माटे अहीं भरतमहाराजे करावेल चैत्यने विषे श्रीमान् आदि जिनेश्वरने नमस्कार करवाने माटे अमाझं आवागमन थएलुं छे. एवी रोते बोली रहेवाथी मंत्रीए कह्यु के-आ सूर्ययशाराजानी साथे तमारो संगम श्रेष्ठ छे; कारण के ते राजा श्रीमान् ऋषभदेवस्वामीनो पौत्र अने भरतचक्रवर्तीनो पुत्र छे. ते सर्व कळा संपूर्ण मनोहर तथा सारा गुणवाळो छे अने महा बळवान् पराक्रमो छ माटे निश्चय ऋषभदेवस्वामी तमारा उपर तुष्टमान थया छे के तमोने अकस्मात् सूर्ययशा जेवो वर प्राप्त थयो, एवी रोते बोल्यो. तेओए मंत्रीने कयु के-जे अमारे स्वाधिन पति रहे तेने छोडीने अन्य पति करवानां नथी. त्यारबाद राजाना आग्रहथी मंत्रोए का के, तमारुं वचन अन्यथा करनार राजाने हुं निषेध करीश. मंत्रीना ए प्रकारनां वचनोने श्रवण करी तत्काळ ते ज समये श्री युगादिदेव समक्ष तेमनो पाणिग्रहण
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पर्युषणा - ष्टाह्निका
व्याख्यान
॥ ३७ ॥
BOKELETOOREEN SKOO
महोत्सव थयो. त्यारबाद बनेना प्रीति रसने विषे आकर्षण पामेको राजा संसारने विषे तेना भोगने ज साररूपे मानतो थको अन्य कर्त्तव्योने बिसारी ते बन्नेना साथे विविध प्रकारना भोगने भोगवतो, सुखवडे करी काळने निर्गमन करवा लाग्यो. एकदा प्रस्तावे संध्या समये ते बन्ने स्त्रीओ सहित सूर्ययशाराजा राजमहेलना झरुखामां बेठो हतो. ते समये हे लोको ! आवती काले अष्टमी पर्व थशे, ते माटे तेने विषे आदर सहित यह धार्मिक क्रियाओ करवा तत्पर रहेशो, ए प्रकारे पडहनी उद्घोषणा बने कपटी स्त्रीओए सांभळी, तेथी अवसर जाणीने रंभा जाणे अजाणी होयने शुं ? एवं प्रगट करती आदर सहित राजाने भंभा वागवानुं कारण पूछवा लागी; तेथी राजा बोल्यो के है रंभा ! तुं सांभळ. अमोने पिताजीए कहेनुं छे के चतुर्दशी अष्टमी पर्वने विषे तथा अमावास्या पूर्णिमाने विषे तथा आसो मास तथा चैत्र मासनी आ बे अट्ठाइने विषे तथा त्रण चौमासी तथा वार्षिक पर्युषण पर्वने विषे इत्यादिक स पर्वों तथा ज्ञान-आराधन निमित्ते ज्ञानपंचमो कहेल: छे ते सर्व पर्वने विषे करेलं पुन्यकर्म स्वर्ग अने अपवर्ग सुखने आपवावाळं थाय छे. ते माटे ए पर्वो विषे समग्र व्यापारने छोडी शुभ कर्म करवा, पण ए पत्राने विषे स्नान, स्त्रीसंग, केश, जुगार, क्रिडा, परनु हास्य, मात्सर्य, ( इर्ष्या ) क्रोधादिक कषायसंग अने लेशमात्र प्रमाद पण करवा नहि, तथा प्रिय पदार्थ तथा मनुष्योने विषे पण ममता करवी नहि, तथा परमात्मानुं स्मरण करी शुभ ध्यानने धारण करवावाळं थनुं, तथा सामायिक, पौषध तेमज छट्ठ, अट्ठम प्रमुख तप करवो, तेज जिनेश्वरमहाराजनी पूजा करवी. ए प्रकारे पर्वनुं आराधन करनार प्राणी पुन्यने उपार्जन करे छे अने अनुक्रमे कर्मने क्षीण करी मुक्तिने पामे छे. ते कारण माटे हे स्त्रीओ ! सप्तमी तथा त्रयोदशीने दिवसे लोकोने प्रबोध
भाषान्तरम्
॥ ३७ ॥
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भाषान्तरम् ।
पर्युषणाष्टाह्निका व्याख्यान
॥३८
॥
करवाने निमित्ते मारी आज्ञायकी पढहनी उद्घोषणा थाय छे. ए प्रकारे राजाना वाक्यने श्रवण करी तेना निश्चय | वचनोथी चमत्कार पामी, उर्वशी मायावी कपटमपंचयुक्त वचनजालवडे करी कहेवा लागी. हे नाथ ! आ मनुष्यपणुं तथा आq रूप तथा आवा राज्यना सुखने तपस्यादिक कायक्लेशवडे तमे शुं काम विडंबना पमाडो छो ? माटे यथेच्छ सुखने भोगवो, कारण के फरीथी मानवजन्म, राज्य अने भोगादिक क्याथी प्राप्त थशे ? कानने विषे तपावेला सीसा सदृश उर्वशीना वाक्यने श्रवण करी राजा बोल्यो-रे ! रे ! धर्मनिंदा करनारी! मलीन स्वभावधी धर्मने विषे आ तहारी वाणी लेशमात्र विद्याधरना कुळना आचारने विषे उचित देखाती नथी. तहारी सर्व चातुरीने धिक्कार छ, तथा तहारी अवस्था तथा कुलादिकने धिक्कार छ कारण के तुं तप तथा जिनपूजादिक सर्वने निंदे छे. मनुष्यपणु, उत्तम रूप, आरोग्य अने राज्यादिक सामग्री तपस्यादिक करवायी ज पाप्त थाय छे तो ते तप आदि धर्मकर्तव्यने कोण पुरुष न आराधे ? अपितु सर्व डाह्या मनुष्यो धर्मकर्तव्य करे ज; माटे जे धर्मना आराधनने नथी करता ते कृतघ्न कहेवाय छे. वळो धर्मना आराधन करवाथी देहनी विडंबना थती नथी; परंतु केवळ विषयादिकवडे करी ज देहनी विडंबना थाय छे ते माटे यथाशक्ति धर्मकरणी करवी. वारंवार मानवभव प्राप्त थतो नथी. व्रतने धारण करनारा मृगला अने सिंहना बाळको पण अष्टमी चतुर्दशीने विषे आहारादिकनें ग्रहण करता नथी तो हुँ केम ग्रहण करुं ? अहो ! अहो! तेओनुं जाणपणुं तथा मानवपणुं पण धिक्कारने पात्र ज छे के जेओ सर्व धर्मना कारणभूत पर्वना आराधनने करता नथी. श्रीमान् युगादि जिनेश्वरमहाराजे आ उत्तम पर्व छे एवी रीते उपदेश करेल छे, ते माटे ते पर्वने कंठगतप्राण थाय तोपण तप कर्या सिवाय हुं छोडवानो नथी. हे
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॥ ३८ ॥
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पर्युषणा - ष्टान्हिका
व्याख्यान
।। ३९ ।।
SOCESSORIESTOCKETO
स्त्री ! माहं राज्य जाओ, महारा प्राण जाओ तोपण तप करवाथी हुं भ्रष्ट थवानो नथी. आ प्रकारे राजानां क्रोधयुक्त वचनोने श्रवण करी उर्वशी मोहमायाने फरीथी करती कहेवा लागी हे स्वामिन् ! तमोने कायक्लेश न थाओ. ए तो केवळ प्रेमरसथी ज तो कहेलुं छे, मादे क्रोध करवानो आ समय नथी. प्रथमथी ज अमारा पिताना वाक्यथकी विमुखभावने पामेल अमोए स्वच्छंदचारी पति कर्यो नहि. सांप्रतकाळे पूर्वकमना विपाकथकी तमने अमे वरी तेथी अमारुं संसारसुख पण नाश पायुं तथा शियळ पण नाश पाम्युं. जो स्वाधीन स्त्री-पुरुषोनो संयोग होय त्यारे ज सांसारिक सुख प्राप्त थाय छे. अन्यथा रात्रिदिवसना योगोना पेठे विडंबना ज कहेवाय छे. हे स्वामिन् ! प्रथम तमे नाभिराजाना पुत्र ऋषभदेवस्वामी पासे अमारुं वचन अंगीकार करवानुं कबुल करेल छे. एकदा प्रस्तावे फक्त स्वाभाविक भावथी तमारी परीक्षा करवा निमित्ते आटली नजीवी याचना करी. हा ! हा ! इति खेदे तमे अल्प कार्यने विषे ज क्रोधवश थइ गया. हे नाथ ! हुं तो सुखथकी तथा शियळथकी एम बन्नेथी भ्रष्ट थह, माटे महारे अमिनी अंदर झंपापात करी मरवुं ते ज श्रेयस्कर छे. एवा उर्वशीना वाक्यने श्रवण करी तेने विषे आसक्त चित्तवाळो राजा पोताना वचनोनुं स्मरण करतो कहेवा लाग्यो. हे प्रिये ! पिताना पिताए जे कलुं छे अने पिताए जे कहेलुं छे, ते पर्वना नाशने तेनो पुत्र थइने हुं केम करूं ? हे हरिणाक्षि ! महारी समग्र पृथ्वी, भंडार, हस्ति, अश्व आदि सर्वने तुं ग्रहण कर; परंतु ते वडे करी मने लगारमात्र सुख नथी. ते माटे धर्मना नाशरूप आवा अकृत्यथी तुं महारुं निवारण कर. एवी रीते राजाना वचनो श्रवण करी उर्वशी लगारमात्र हास्य करी कोमळ वाणीवडे करी राजाने कहेवा लागी हे राजन् ! तमारा जेवाने तो जे सत्य वचन छे
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भाषान्तरम्
॥ ३९ ॥
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भाषान्तरम्
पर्युषणाष्टाद्विका
व्याख्यान
॥४०॥
तेज व्रत छे, कारण के जे पापिष्ट माणसोए पोतानां अंगीकार करेलां वचनोनो भंग करेलो छे ते अशुचिमय पापिष्ट माणसोना भारवडे करो आ पृथ्वी अत्यंत खेद पामे छे. हे नाथ! तमाराथी आ लगार मात्र कार्य सिद्ध यतुं नथी तो राज्यादिक आपवानी तमारी बुद्धि केम यशे? अरे रे ! तमारा माटे में महारा पिता विद्या| धरना ऐश्वर्यनो त्याग करेल छे तो जेवा तेवा तमारा राज्यने शुं करुं? हे स्वामिन् ! जो तमे पर्वना भंगने
करता नथी तो महारा पासे श्री युगादि जिनेश्वरना प्रासादनो नाश करो. उर्वशीना एवा वाक्यने श्रवण करवामात्रथीज mil राजा वजाहत जेम मूर्छा पाम्यो अने चैतन्य रहित थइ भूमिपर पज्यो. ते मंत्रीना आदेशने विषे तत्पर यएला |
अने आकुळव्याकुळ भावने पामेला लोकोए पाणीना सिंचन करवाथी तथा पवनना नाखवावडे करी राजा चैतन्य पाम्यो. ते समये पोताना पासे उभी रहेल खोने देखी क्रोष करी राजा बोल्यो-हे अधमे ! आ तारो आचार तथा आ तारी वाणी महारा पासे तहारा अधमपणाने सूचवे छे, कारण के उद्गारना पेठे आहार होय छे. तुं । विद्याधरनी पुत्री नथी किंतु चांडालनी पुत्री देखाय छे. में मणिना भ्रमवडे करी फोगट काचना खंडने विषे आदर करेलो के. वळी पण शास्त्रकारमहाराजाए शास्त्रने विपे स्त्रीओने नीच कहेली छे ते बराबर छे, जे माटे कयुं छे के:
यदुक्तम्" वाचाला कलहप्रिया कुटिलिनी क्रोधान्विता निर्दया, मूर्खा मर्मविभाषिणी च कृपणी माया यथा डिंभकाः ।
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पर्युषणा - ष्टाह्निका व्याख्यान ॥ ४१ ॥
OOSEBOOK TO OKHO
भर्त्तुर्देषकरी कलंकसहिता कुक्षिभरी सर्वदा, कद्रूपा गुरुदेवभक्तिरहिता भार्या भवेत्पापतः ॥
१ ॥
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भावार्थ:- श्रीमान् शास्त्रकारमहाराजा कथन करे छे के प्राणीना महान् पापकर्मना उदयवडे करी नीच स्त्रीभोनी प्राप्ति थाय छे. प्रबळ पापना उदयथी वाचाला कहेतां महा लबाड अने लवारो करनारी एवी तथा निरंतर क्लेश छे जेने प्रिय एवी अर्थात् महाक्लेशने करनारी तथा वक्रगतिवाळी कुटिला तथा क्रोधवडे करी सहित तेमज निर्दया तथा मूर्खी तेमज पारकाना मर्मने प्रकाश करवावाळी तथा कृपण तेमज मायावी बाळको समान बाळचेष्टा करनारी तथा भर्त्तारना उपर द्वेष करनारी तथा कलंक सहित तेमज निरतर पोताना ज उदरने भरवावाळी तथा कदरूपी ( खराब रूपवाळी ) तेमज देवगुरुनी भक्ति रहित स्त्रीओ महापापना उदयथी प्राप्त थाय छे.
हे स्त्रीओ ! मने पण महापापना उदयथी तमारा जेवा मलीन, नीच अने धर्मध्वंसी एवी तमो प्राप्त थएली छो; कारण के जे त्रण लोकनो नाथ के तथा ऋण लोकने वंदन करवा लायक छे, ते देवना प्रासादनो भंग करवाने माटे कहो छो तो तेम कोण केवी रीते करे ? तेनो विचार करो. अर्थात् ते कर्त्तव्य महाराथी बनी शके तेम नथी. हे स्त्री ! हुं पोते ज महारा वचनथी बंधाएल हूं, ते माटे मने वचनमुक्त करवा माटे धर्मना लोप सिवाय अन्य कांइ पण मागणी करो. पर्वनो लोप तथा चैत्यनो नाश हुं कोइ पण प्रकारे करनार नथी. ते सांभळी उर्वशी किंचित्मात्र हास्य करीने बोली के हे नाथ ! जे जे वचनो कहीए छीए ते तमाराथी पाळी शकात नथी.
भाषान्तरम्
॥ ४१ ॥
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भाषान्तरम्
पर्युषणाटालिका व्याख्यान
॥४२॥
अन्य वचनोनी मागणी करो आवी रीते अन्य अन्य करतां तमारां वचनो सर्वथा दूर दूर जाय छे. जो ते पण तमाराथी पाळी शकातुं नथी तो तमे तमारा पुत्रनुं मस्तक कापी मने शीघ्रताथी अर्पण करो. आ समये राजा विचार करीने बोल्यो के-हे सुलोचने ! महारो पुत्र महाराथी उत्पन्न थएलो छे, ते माटे महारूं मस्तक तहारा हस्तकमळमां अस्तु (हो), एम कही राजा हस्तने विषे खड्ग ग्रहण करी पोतार्नु मस्तक कापवा जेवो तत्पर थयो तेवामा बन्ने देवीओए खड्गनी धारा बांधी दीधी; परंतु राजाना सत्यनी धारा तेमनाथी बंधाइ शकी नहि. हवे खड्गनी धारा बंधाइ जवाथी राजा विलक्ष थइ गयो, अने कंठकमळ कापवा माटे नवीन नवीन शस्त्र ग्रहण करवा लाग्यो तेमज देवीशक्तिथी तमाम शस्त्रनी धारा बंधाइ जवा मांडी. राजा ज्यारे लेशमात्र पोताना सत्यथकी चलायमान थयो नहि त्यारे ते स्त्रीओ पोताना मूल रूपने प्रगट करी अति आदर सहित जय जय प्रकारना अनेक प्रकारे शब्दोनो वारंवार उच्चार करी आनंदथी बोलवा लागी. यतः" जय त्वं वृषभस्वामिकुलसागरचंद्रमाः। जय सत्त्ववतां धुर्य ! जय चक्रीशनंदन ! ॥१॥"
भावार्थ:-श्रीमान् ऋषभदेवस्वामीना कुळरूपी समुद्रने उल्लास पमाडी वृद्धि करवामां चंद्रमा समान हे राजन् ! तमे जयवंत वत्तों (थाओ) तथा हे सच्चवंत पाणीओने विषे शिरोमणि! तमे जयवंत वत्तों तथा हे चक्रवत्तींना पुत्र ! तमे जयवंत वत्तों.
अहो ! तमारुं धैर्य, अहो ! तमारा मननु निश्चलपणुं, जे माटे पोताना विनाशने विषे पण लेशमात्र व्रतना
॥ ४२ ॥
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भाषान्तरम्
भंगने कयु नहि. हे राजन् ! देवताओना स्वामी इंद्रमहाराज समाने विषे बेसी देवताओनी पासे तमारा अतुल पर्युषणा
पराक्रमनी प्रशंसा करता हता, ते प्रशंसा अमो सहन नहि करी शकवाथी तमोने चलायमान करवानो निश्चय करी ष्टान्हिका अहीं आवी क्षोभ पमाडवा प्रयत्न कर्यो; परंतु तमोने क्षोभ पमाडवाने कोइ पण समर्थमान नथी. हे जगत्पभुव्याख्यान कुलावतंस ! हे ऋषभदेवस्वामीना कुळने विषे मुकुट समान ! हे वीर ! रत्नगर्भा वसुधरा ! आ यथार्थ नामने ॥४३॥
धारण करनारी पृथ्वी तमारावडे करीने ज रत्नगर्भा कहेवाय छे. कडुं छे के
“ नागो भातिमदेन कंजलरुहैः पूर्णेदुना शर्वरी, शीलेन प्रमदा जवेन तुरगो नित्योत्सवैमंदिरं। । वाणी व्याकरणेन हंसमिथुनैनद्यः सभा पंडितैः, सत्पुत्रेण कुलं त्वया वसुमति लोकत्रयं धार्मिकैः।१।। । भावार्थ:-जेम मदवडे करी हस्ति शोभे छे तथा जेम कमळोवडे करी सरोवर शोभे छे तथा जेम पूर्णिमाना
चंद्रवडे करी रात्रि शोभे छे तथा जेम शियळवडे करी स्त्री शोभे छे तथा जेम वेगवडे करी घोडो शोभे छे तथा जेम निरंतर उत्सववडे करी मंदिर शोमे छे तथा जेम व्याकरणवडे वाणी शोभे छे तथा जेम हंसना मिथुन (जोडला) वडे करी नदी शोमे छे तथा जेम पंडित वडे सभा शोभे छे, तथा जेम सत्पुत्रवडे करी कुळ शोभे छे, तथा जेम धर्मनिष्ठ माणसवोडे प्रण लोक शोभे छे, तेम हे महानुभाव ! हे वीर! तमारावडे करी आ पृथ्वी शोभे छे.
एवी रीते जेवामां स्तुति करे छे तेवामा श्रीमान् इंद्रमहाराज त्यां पधार्या, अने जय जय शब्दना उच्चारपूर्वक सूर्ययशाराजाना उपर पुष्पनी दृष्टि करी. त्यारवाद प्रतिज्ञाभ्रष्ट थएली उर्वशीना सन्मुख उपहासपूर्वक जोवाची लज्जाने
४३॥
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भाषान्तरम्
पर्युषणाष्टातिका
व्याख्यान
॥४४॥
पामेली उर्वशी इंद्रमहाराजना पामे सूर्ययशाराजाना गुणगान करवा लागी. इंद्रमहाराजे पण सूर्ययशाराजाने मुकुट, कुंडल, हार, बाजुबंध आपो नमस्कार करी बन्ने देवीओनी साथे स्वर्गने विषे गया. सूर्ययशाराजा पण सत्य प्रतिज्ञावाळो हर्षने पाम्यो सतो नीतिवडे करी पृथ्वीन पालन करवा लाग्यो. हवे राजा पण भरतचक्रवर्तिना पेठे समग्र पृथ्वीने जैनमंदिरथी विभूषित करी, श्री घ तथा तीर्थयात्रादिकवडे करी पोताना मानवजन्मने श्री युगादि जिनेश्वरमहाराजना चरणकमळनी पेठे पवित्र करतो निरंतर अष्टमी चतुर्दशी- आराधन करवा लाग्यो, तथा व्रतधारी एवा श्रावकोने पोताना घरने विषे भोजन करावा लाग्यो. पूर्वे भरत महाराजाए रत्ननी रेखावडे करी श्रावकोने अंकित (चिह्नित) कर्या हता, तेवी जरीते सूर्ययशाराजाए सुवर्णनी उपवीत (जनोइ) वडे श्रावकोने भूषित कर्या. ते राजाने उदार चरित्रवाळा घणा ज पुत्री इता. जेम ऋषभदेवस्वामी थकी इक्ष्वाकु नामनो वंश प्रसिद्ध थयो तेवी रीते सूर्ययशाराजा थकी पण सूर्यवंश प्रसिद्ध थयो. ते सूर्ययशाराजा पण एकदा प्रस्तावे पोताना पिता भरत महाराजानी पेठे पोताना रत्नना आरिसाना भवनने विषे देखता अने संसारनी असारताने चिंतवता केवलज्ञान पाम्या. ते समये देवेंद्रादिके आवी साधुवेष अर्पण करवाथी दीक्षा अंगीकार करी, घणा जीवोने प्रतिबोध करी मुक्तिपदवीने वर्या. इति स्वनियम प्रतिपालन उपर सूर्ययशाराजानी कथा पूर्ण थइ.
ए प्रकारे सर्व जीवोए पोताना नियमने विषे दृढता धारण करवी, तथा आ वार्षिक पर्वमा संवत्मरी पतिक्रमणने विषे १००८ श्वासोश्वास प्रमाण काउस्सग्ग करवो. चालीश लोगस्सनो काउस्सग्ग चंदेसु निम्मलयरा सुधी करवो. यावद् एक लोगस्सना पच्चीस (२५) श्वासोश्वास थाय छे, तथा चालीश (४०) लोगस्सना उपर एक
॥ ४४ ॥
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पर्युषणा - ष्टान्हिका
व्याख्यान
।। ४५ ।।
नवकार गणवो. आवी रीते चालीश लोगस्सने पच्चीश श्वासोश्वासे गुणवा तथा एक नवकारने गणवो, तथा चौमासी प्रतिक्रमणने विषे पांच सो ( ५०० ) श्वासोश्वासनो कायोत्सर्ग करवो. वीस लोगस्स गणवाना सद्भावथी तथा पाक्षिक प्रतिक्रमणे विषे त्रण सो (३००) श्वासोश्वास परिमाणनो कायोत्सर्ग करवो. बार (१२) लोगस्सना सद्भावथकी. हवे एक एक श्वासोश्वास मध्ये केटला प्रमाण देवतानुं आयुष्य बांधे छे, ते कहे छे-वे लाख पिस्ताळीश हजार चारशे ने आठ पल्योपम प्रमाण देवतानुं आयुष्य बांधे छे. कं छे के
" लक्खदुगसहस्सपणचत्त, चउसया अटू चेव पलियाई । किंचूणा चउभागा, सुराउबंधी इग उसासे ॥ १ ॥
भावार्थ:- बे लाख पिस्ताळीश हजार चार सो ने आठ पल्योपम (२४५४०८) मां कांइक न्यून चार भाग जेट एक श्वासोश्वासने विषे देवतानुं आयुष्य बांधे छे.
एक पल्योपमना नव भाग करवा अने ते नव भागमांथी चार भाग ग्रहण करवा, एटला प्रमाणवालुं देवतानुं आयुष्य बांधे छे. समस्त नवकार आठ श्वासोश्वास प्रमाण, तेने विषे ओगणीश लाख त्रेसठ हजार बसो ने सडसठ ( १९६३२६७) पल्योपम प्रमाण देवतानुं आयुष्य बांधे छे, एवी रीते समस्त लोगस्सना पच्चीश: श्वासोश्वासमां एससठ लाख पांत्रीस हजार बसो ने दश (६१३५२१०) एटला पल्योपम प्रमाण देव आयुष्य बांधे छे-देवलोकने विषे एटला पल्योपम प्रमाण देवतानुं आयुष्य होय छे त्यां उत्पन्न थाय छे; कारण के नवकार तथा लोगस्सना
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भाषान्तरम्
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भाषान्तरम्
पर्युषणा- ष्टाह्निका व्याख्यान
४६ ॥
प्रभावथी त्यां उत्पन्न थाय छे. तथा पर्युषण पर्वने विषे चैत्यपरिपाटी करवी. कयुं छे के| " दर्शनेन जिनेंद्राणां साधूनां वंदनेन च । न तिष्ठति चिरं पापं छिद्रहस्ते यथोदकम् ॥१॥"
भावार्थ:-जिनेश्वरमहाराजना दर्शन करवाथकी तथा साधुओने वंदन करवाथी जेम छिद्रवाळा हस्तमा पाणी टकी शकतुं नथी तेम देवगुरुना दर्शन करवाथी घणा काळनां पापकर्म नाश पामे छे. वळी कहाँ छ के| "दर्शनात् दुरितध्वंसी, वंदनाहाञ्छितप्रदः। पूजनात्पूरकःश्रीणां, जिनःसाक्षात् सुरद्रुमः॥२॥"
भावार्थ:-वळी जिनेश्वर महाराजना दर्शन करवाथी दुरित (पाप) नो नाश थाय छे, तथा जिनेश्वर महाराजने वंदन करवाथी वांछित फळनी प्राप्ति थाय छे तथा जिनेश्वर महाराजनी पूजा करवाथी विविध प्रकारनी लक्ष्मीनी प्राप्ति थाय छे. बळी पण कयु छ के
"यास्याम्यायतनं जिनस्य लभते ध्यायंश्चतुर्थ फलं, षष्टं चोत्थित उद्यतोऽष्टममथो गंतुं प्रवृत्तोऽध्वनि । श्रद्धालुर्दशमं बहिर्जिनगृहात् प्राप्तस्ततो द्वादशं, मध्ये पाक्षिकमीक्षिते जिनपतौ मासोपवासं फलम् ॥१॥"
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भाषान्तरम्
पर्युषणाष्टाह्निका व्याख्यान
॥४७॥
भावार्थ:-हं जिनेश्वर महाराजना मंदिर प्रत्ये गमन करीश एम चितवना करनार भव्यजीव चोथभक्त | (उपवास) ना फळने पामे छे, अने उठतो सतो छ? (बे उपवास) ना फळने पामे छे, तथा चालवाने माटे उद्यम करतोथको अट्ठम (त्रण उपवास) ना फळने पामे छे, अने श्रद्धालु थइ मार्गने विषे चालवा मांड्यो थको दशम (चार उपवास) ना फळने पामे छे, तथा जिनेश्वर महाराजना मंदिरना द्वार पासे पहोंचता द्वादश (पांच उपवास) ना फळने पामे छे, अने जैन मंदिरना मध्य भागने विषे जवाथी पाक्षिक (पंदर उपवास) ना फळने पामे छे, अने जिनेश्वर महाराजने देखवाथी एक मासना उपवासना फळने पामे छे. किं च
“संपत्तो जिणभवणे, पावइ छम्मासिअं फलं पुरिसो।
संवच्छरिअं तु फलं, दारदेसठियो लहइ ॥२॥" भावार्थः-वळी जिनेश्वर महाराजना भवनने पाम्योथको पुरुष जे ते छ मासना उपवासना फळने पामे छे, अने देरासरजीना द्वार देशने विषे रह्योथको संवत्सरना उपवासना फळने पामे छे. वळी का छे के
“पयाहिणेण पावइ, वरिससयं फलं तओ जिणे महिऐ।
पावइ वरिससहस्सं, अणंतगुणं जिणे थुणिए ॥३॥" भावार्थः-प्रदक्षिणा देवाथी सो वर्षना उपवासना फळने पामे छे, तथा जिनेश्वर महाराजनी पूजा कर्ये सते
॥४७॥
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पर्युषणा-IST
भाषान्तरम्
ष्टान्हिका व्याख्यान
॥४८॥
हजार वर्षना उपवासना फळने पामे छ; अने जिनेश्वर महाराजनी स्तुति करतोयको अनंतगुणा फळने पामे छे. | “ सयं पमजणे पुण्णं, सहस्सं च विलेवणे । सयसाहस्सिआ माला, अणंतं गीअवाइए ॥४॥"
भावार्थ:-जिनेश्वर महाराजने प्रमार्जन करतां सोगणुं पुण्य उपार्जन याय छे, अने विलेपन करतां हजारगणु पुण्य उत्पन्न थाय छे, तथा पुष्पनी माळा चडावतां लक्षगणुं पुन्य उपार्जन थाय छे. तथा गीतगान करतां तेमज वाजिंत्रने बगाढतां अनंतगणुं पुन्य थाय छे.
ते कारण माटे जिनेश्वर महाराजना चैत्यने विषे स्नात्र महोत्सव करवो, तथा अष्टमंगलिक स्थापन करवा, तथा नैवेद्य दौकएँ, तथा अनेक जातिना जात्य चंदन, केसर, पुष्प वगेरे लावीने सकल श्रावक समुदाये एकत्र थइ स्फार संगीतादिक महाआडंबरे करी जैनशासननी उन्नति करवी, तथा चैत्यने विषे वस्त्रादिकना महा ध्वजादिकने चडावां, तथा प्रभावनादि महा महोत्सवादिक कर्तव्योने विस्तारथी पर्व दिवसोने विषे करवां, तेमज पर्युषण महापर्वने विषे विशेषताथी स्वशक्ति अनुसारे करी जैनशासननी उन्नति करवी; कारण के जैनशासनननी उन्नति करनार जीव तीर्थकर मामकर्मने बांधी तीर्थंकरपणुं पामे छे. कर्ष छे के
"अपुव्वनाणग्गहण, सुयभत्तीपवयणे पभावणया। एएहिं कारणेहिं, तित्थयरत्तं लहइ जीवो ॥१॥"
॥४८॥
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भाषान्तरम्
पर्युषणाष्टान्हिका व्याख्यान
॥४९॥
भावार्थ:-पूर्वे नहि भणेला ज्ञानने भणवार्थी, तथा श्रुतज्ञाननी भक्ति करवाथी, तथा जैनशासननी प्रभावना करवाथी वगेरे उपरोक्त कारणोथी आत्मा तीर्थकरपणाने पामे छे. तथा आ पर्युषण पर्वने विषे श्रीसंघनी भक्ति करवी, समग्र जिनालय (जैनमंदिर) ने विष चैत्यवंदनादिक करी, तथा पूजादिक कर्तव्योथी श्री जैनशासननी उमति करवी, जेमके एकदा प्रस्तावे दश पूर्वधर श्रीमान् वज्रस्वामीमहाराज दुष्काळना समयने विषे संघने पटने विषे स्थापन करी सुभिक्षपुरी प्रत्ये लइ गया हता. कई छे के
" ये साधर्मिकवात्सल्ये, स्वाध्याये चरणेऽपि वा।
दीर्घप्रभावनायां चोद्युक्तास्तांस्तारयेन्मुनिः ॥ १॥" भावार्थः-जे साधर्मिक भाइभोना वात्सल्य करवाने विष, तथा स्वाध्याय ध्यानने विषे, तथा चारित्रने विषे, तथा शासननी महापभावनाने विषे, ऊजमाळ होय छे, तेने ज मुनि तारवाने माटे समर्थमान छे...
हवे ते सुभिक्षपुरीने विषे बौद्ध राजाए पुष्पनो एवी रीते निषेध कर्यों के-जैनचैत्यने विषे कोइए पुष्पो आपवां नहि. त्यारबाद पर्युषण पर्व आव्या, ते समये श्रावको श्रीमान् वज्रस्वामीमहाराजने विनति करवा लाग्या.
" तीर्थोन्नतिकृते नित्यं, उद्यते साधवोऽपि हि । तेनेह भवता स्वामिन् !, कार्या तीर्थप्रभावना ॥१॥"
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पर्युषणाष्टाहिका
भावार्थ:-तीर्थनी उन्नति करवा निमित्ते साधुओ पण उद्यमने करे छे, ते कारण माटे हे स्वामिन् ! आप साहेबे पण अहीं तीर्थनी प्रभावना करवी जोइए; कारण के-पुष्पपूजा विना पर्युषण पर्व शोभाने पामी शकता नथी.
भाषान्तरम्
व्याख्यान
५०
ए प्रकारे श्रावकोनां वचनोने श्रवण करी श्रीमान् वज्रस्वामीमहाराज आकाशगामिनी विद्यावडे करी माहेश्वरीनगरीने विषे पोताना पितानो मित्र ताडित नामनो माळी हतो, त्यां जइ तेमना पासेथी एकवीश कोटी पुष्प लइने पोते श्री हिमवंत पर्वतने विषे श्रीदेवी (लक्ष्मीदेवी) ने घरे गया. त्यां लक्ष्मीदेवीए आपेल एक महाकमळने तथा हुताशन वनथी वीश लाख फुलने लइने तिर्यग्ज़ंभक देवताए विकुर्वणा करेल विमानने विषे बेसी महोत्सव सहित आवीने जैनशासननी प्रभावना करी सर्व जैनमंदिरोने विषे महोत्सव कों. ते देखीने अनेक बौद्ध लोकोए मान मृकी श्रीमान् वज्रस्वामीमहाराजना चरणकमळने नमस्कार कर्यो, अने बौद्धराजा पण जैनधर्मने विषे भक्तिवाळो थयो. वळी पण का छे के
पर्व महिमाने विषे प्राये करी धर्म रहितने पण धर्म करवानी बुद्धि थाय छ, निर्दय प्राणीओने पण दया पाळवानी बुद्धि थाय छे, अविरतिओने (व्रतप्रत्याख्यान रहित) ने पण व्रत पञ्चक्खाण करवानी मति थाय छे, कृपण प्राणीओने पण सन्मार्गने विषे लक्ष्मीनो व्यय करवानी इच्छा थाय छे, तथा कुशील प्राणीओने पण शियळ पाळवानी विचारणा थाय छे, तथा तप रहित जीवोने पण तपस्या करवानी भावना थाय छे, माटे शास्त्रकार महाराजाए शास्त्रने विषे कहेलुं छे के
॥५०॥
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भाषान्तरम्
पर्युषणाष्टाह्निका
व्याख्यान
५
॥
“सो जयउ जेण विहिया, संवच्छर चउमासिअ सुपव्वा।
निद्धम्माण वि हवइ, जेसिं पभावा धम्ममई ॥१॥" भावार्थ:-जे मनुष्ये संवत्सरी तथा चौमासी आदि सुपर्वर्नु आराधन करेल छे ते जयवंता वत्तों, कारण के जे | पर्वना महिमाथकी निर्वस परिणामवाळा जीवोने पण धर्मने विषे बुद्धि थाय छे. कारण के पर्वना महिमानो प्रभाव पण एवो ज छे.
वळी पण गुरुमहाराजना वचनरूपी अमृतरसवडे करी सिंचाएल पंडित पुरुषोना हृदय थोडा ज उपदेशथी भेदाइ जइ (बोधने पामी) भद्रिकभावी थइ जाय छे; परंतु घणो ज उपदेश आपवावडे करी ज्ञानीपुरुषो पण मूर्ख माणसना अंतरने भेदवा समर्थमान थता नथी. जेम मुशलधारा वरसादने वरसावनार मेघनी धारावडे करीने पण मगशेलीओ पाषाण कदापि काळे लेशमात्र भेदातो नथी तेमज मूर्ख माणसना हृदयने विविध प्रकारनी लब्धिी जेने उल्लास पामी छे तेवा ज्ञानी अने प्राभाविक पुरुषो पण भेदी शकता नथी. ते कारण माटे मूर्ख माणसने उपदेश आपवो सर्वथा वृथा छे. तथा तेनी पासे शास्त्रनी उक्ति (वचनश्रेणि) नो वरसाद वरसाववो ते पण वृथा छे. वळी मूर्ख माणस ते हित-अहितने तेमज उचित-अनुचितने पण जाणी शकतो नथी ते मूर्ख माणस शंग-पूच्छविहीन (शींगडा-पूछडा विनानो) संसाररूपी वनने विषे परिभ्रमण करे छे, अने धर्मने जाणी शकतो नथी. ते मूर्खना उपर उदाहरण सांभळो.
॥
१
॥
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भाषान्तरम्
पर्युषणाष्टान्हिका व्याख्यान
॥५२॥
शाळीग्रामने विषे कोइक कौटुंबिक वसतो हतो. तेमना खेतरमां शरदऋतुने विषे शाली परिपक्वपणाने पामेली होवाथी कापवाने माटे चाकरनी शोधखोल करतां भिक्षा मागवाने माटे परिभ्रमण करता एक पामरने तेणे देख्यो. तेने दधिचोखानु भोजन करावी कौटुंबिक पुरुषे को-जो तुं महारा क्षेत्रने विषे कापणी करे तो तने निरंतर आq भोजन करावं. तेथी पामरे कड्यु के-करीश पण हुं जाणतो नथो के शी रीते करवु ? कौटुंबिके कह्यु के-हुंतने शीखवोश. पामरे कडं एम हो. त्यारबाद कौटुंबिक पुरुषे कह्यं के, हुं करूं तेम तुं करजे. पामरे कयु के एम | करीश. त्यारबाद पामरने पाणीनो घडो आपो पोते छाणने ग्रहण करीने चाल्यो. क्षेत्र प्रत्ये जइने कौटुंबिके | छाण नीचे नाख्यु तेथी पामरे पाणीनो घडो नीचे नाख्यो ते भांगी गयो तेथी तेना उपर रुष्टमान ययो, तेथी पामर पण तेना उपर रुष्टमान थयो. तेथी कौटुंबिके पामरने मार्यों, पामरे पण कौटुंबिकने मार्यो. एवी रीते परस्पर युद्ध चाल्यु. हवे पामरनुं शरीर लष्टपुष्ट होवाथी कौटुंबिकने एवी रीते कुट्यो के तेना भयथी त्रास पामेल कौटुंबिक महाकष्टथी छूटीने त्यांथी नासवा लाग्यो अने नासतां नासतां कौटुंबिकनुं वस्त्र वृक्षादिकने विषे वळगी रडुं. ते समये पाछळ दोडता पामरे कौटुंबिकने नग्न देखी पोतानुं वस्त्र पण काढीने दूर फेंकी दीg. एवी रीते दोडतां दोडतां गामनो दरवाजो आव्यो, ए अवसरे पोतानुं नग्नपणुं दूर करवा माटे पाणी लेवा माटे गमन करती पोतानी स्त्रीना पासेथी वस्त्र लोधु, तेथी पामरे पण स्त्रीना पासेथी पहेरवा वस्त्र लीधुं. आ समये कौटुंबिक भयथी विह्वळ थइ जइ पोताना घरना एक खुणामां जइने पेठो. पामर पण बीजा खुणाने विषे पेठो. आ प्रकारचें आश्चर्य देखी लोको त्यां एकत्र थइ जेटलामां आ शुं छे ? एम बोले छे तेटलामा कौटुंबिक पामरने देखाडे छे अने पामर कौटुंबिकने
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भाषान्तरम्
पर्युषणाष्टाह्निका
व्याख्यान
॥५३॥
देखाडे छे. त्यारबाद लोकोए महा कष्टवडे करी समजाव्यो, तोपण ते मूर्खनु हृदय भेदाणुं नहि; कारण के-मूर्खने बोध थवो महादुर्लभ छे. कयु छ के
'यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा, शास्त्रं तस्य करोति किम् ।
लोचनाच्यां विहीनस्य, प्रदीपः किं करिष्यति ? " ॥१॥ भावार्थ:-जे माणसने पोतानी बुद्धि नथी तेने शास्त्रनो उपदेश शुं करी शकनार हतो? अर्थात काइज नहि. कारण के जे माणसोना नेत्रो नाश पाम्यां छे ते माणसने दीपक शुं प्रकाश करवानो हतो ? अर्थात् कांइ ज नहि.
ते माटे मूर्खपणानो त्याग करी शास्त्रोक्त मार्गने विषे चालवू, तथा अष्टाह्निका पर्वने विषे अमारीना पडहनी उद्घोषणा कराववी जेमके संपति राजाए पोताना त्रणे खंडने विषे अमारी उद्घोषणा करावी हती, तथा श्रीमान् कुमारपाळ महाराजाए पण पोताना अढार देशमां अमारी प्रवर्तावी मारी शब्दने पृथ्वीपार कर्यों इतो, तथा सांपतकाळने विषे पण परम प्रभावक धर्मगुरु श्रीमान् हीरसूरीश्वरजी महाराजना परम कृपामय सदुपदेशथी मुसलमान | एवो पण अकबर बादशाह पण पोताना समग्र देशमा छ मासनी अमारी पळाववा शक्तिमान थयो हतो, ते संक्षेपथी कथन करवामां आवे छे.
एकदा प्रस्तावे अकबर बादशाह पोताना प्रधानादिकना मुखथी श्रीमान् हीरसूरीश्वर महाराजना गुणग्रामना वर्णनने श्रवण करी तेश्रोने बोलाववा माटे पोताना नामांकित फरमान सहित अकबर बादशाहे पोताना माणसोने
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भाषान्तरम्
पर्युषणाष्टान्हिका व्याख्यान
Intel
मोकल्या. ते माणसो गांधारनगरमां बीराजता गुरुमहाराजने मळ्या; तेथी अकबर बादशाहना बहुमानथी गांधारनगरथी गुरुमहाराजे दिल्ली तरफ विहार कर्यो, अने संवत् १६३९ ना जेठ वदी तेरसने दिवसे दिल्ली पहोंच्या, अने गुरुमहाराज अकबर बादशाहने मळ्या. त्यारवाद गुरुमहाराजनुं बहुमान कयु. त्यारवाद गुरुमहाराजे महान् धर्म उपदेश आप्यो. ते आ प्रमाणे
“धन्यानामिह धर्मकर्मविषया वांछापि संजायते, धन्यानामिह तत्प्रवृत्तिरचना केषांचिदेवोद्भवेत् । धन्यास्तस्य च यांति पारमथवा धन्याः प्रशंसंति ये,
घन्यास्तेऽपि च येऽन्यलोकविहितं धर्म न निंदंति ये ॥१॥ भावार्थ:-हे महानुभाव ! राजन् ! महा कष्टवडे करी प्राप्त थएलो छ मानवजन्म जेने, एवा मला भाविक भव्य धन्य जीवोने ज आ संसारना अंदर धर्मध्यान करवा संबंधी उत्तम वासना उत्पन्न थाय छ, तथा धर्मध्यान प्रवृत्तिनी रचना पण केटलाएक धन्य जीवोना हृदयकमळने विषे स्फुरायमान थइ उद्भवपणाने पामे छे, तथा ते धर्मकर्मनो पार धन्यजीवो ज पामे छे, तथा जे धर्मध्याननी प्रशंसा करे छे तेज धन्य कहेवाय छे, तथा जे अन्य जीवो धर्मध्यान करे छे तेने देखी जे धर्म अने धर्मिष्ठ जीवोनी निंदा करता नथी, तेज लोको आ दुनियाने
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पर्युषणा
भाषान्तरम्
ष्टान्हिका
व्याख्यान
विषे धन्य छे. किंबहुना. हे राजन् ! सर्वे धर्मोनो समावेश केवळ एकज जीवदयाने विषेज थाय छे, अने जे धर्मोमां जोवदया नथी ते धर्मों साक्षात्रूपे धर्मपणे कथन करी शकाता नथी; किंतु हिंसकरूपेज गणत्री करवामां आवे छे, माटे दयाधर्म युक्तज धर्म श्रेष्ठ छे. जे माटे का छे के
"कृपानदी महातीरे, सर्वे धर्मास्तृणांकुराः। तस्यां शोषमुपेतायां, कियन्नंदति ते चिरम् ॥१॥" | भावार्थ:-दयारूपी नदोना महान् तीर (तट, कांठाना विषे) विषे सर्वे धर्मों तृणना अंकुरा समान है. कृपारूपी नदी शोषाइ गये सते ते सर्व धर्मरूपी तृणांकुरो केटलो वार सुधी आभावने धारण करी शकवाना इता? कहेवानो सार ए छे के-जेम पाणी विना तृणना लीला अंकुरा शुष्क थइ जाय छे तेम दया विना सर्व धर्मों | सर्वथा शुष्कभावने पामेला व्यर्थ जाणवा. किंबहुना. केवळ जीवदयामय धर्मज जीवोने संसारथकी मुक्त करनार छे.
आवी रीते गुरुमहाराजे धर्म उपदेश आपवाथी, आग्राथी अजमेरनगर सुधी मार्गने विषे दरेक कोश कोश उपर कूवा, मनाराओ बनावीने पोतानुं कला कौशल्य देखाडवाने माटे दरेक मनारा मनारा प्रत्ये सेंकडो शींगडा स्थापन करेलां इतां ते सर्वेने अकबरे दूर कढावी नाख्या. आवी रीते हिंसा करवानी मतिवाळो अकबर बादशाह पण हीरविजयसूरीश्वर महाराजना सदुपदेशथी दयाना परिणामवाळो थयो. एकदा अकबर बादशाह गुरुमहाराजने कहेवा लाग्यो के-आपना दर्शन माटे उत्कंठित थइ दूर देशथी बोलावी अमोए आपने महापरिश्रम आपेल है। तथापि आप अमारुं कांइपण ग्रहण करता नथी माटे आपने जे पदार्थ रुचे तेनी आप साहेबजी अमारा पासे
Atar ॥ ५५॥
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पर्युषणा - ष्टाहिका
व्याख्यान
।। ५६ ।।।
मागणी करो. ते समये विचार करीने गुरुमहाराजे कां के तमारा समग्र देशमां पर्युषण पर्वना आठ दिवसो सुधी अमारीनो पड वगडाववो, तथा बंदीखानामांथी बंदीवानो मुक्त करो ए प्रकारे याचना करी. आवा गुरुमहाराजना वाक्यने श्रवण करी परोपकारी तथा दयाळूपणाना महान् गुणोथी चमत्कार पामेल अकबर बादशाह हर्ष पामी गुरुमहाराजने कहेवा लाग्यो के आ आठ दिवसोनी साथे अमारा बीजा चार दिवसो पण अधिक हो, एवी रीते कहीने पोताना वशवर्त्ति करेला समग्र देशने विषे श्रावण वदि दशमीथी प्रारंभीने भादरवा शुदि छट्ठ सुधी बार दिवसो अमारीना प्रवर्त्ताव्या अने ते संबंधि सुवर्णरचित स्वनामांकित छ फुरमाना जल्दीथी करी गुरुमहाराजने अर्पण कर्या. प्रथम गुजरात देश संबंधी ॥ १ ॥ बीजुं माळवादेश संबंधी ॥ २ ॥ श्रीजुं अजमेरदेशनुं ॥ ३ ॥ चोथुं दिल्ली तथा फत्तेपुर संबंधी ॥ ४ ॥ पांचमुं लाहोर अने मुलतान देश संबंधी ॥ ५ ॥ अने छ पांचे देश संबंधी गुरुमहाराजने रक्षण करवा सुप्रत कर्यु. ॥ ६ ॥ अने तेथी अकबर बादशाहना समग्र देशमां अमारीनो पडह विस्तार पाम्यो. त्यारबाद ते ज अवसरे गुरुमहाराज पासेथी उठी गुरुमहाराजने साथै लइ जइने अनेक कोश विस्तारवाळा डाबर नामना महा सरोवरने विषे नाना प्रकारनी जातिवाळा पक्षीओने विविध प्रकारना देशांतरथी आणी राखेळां हतां ते पक्षीओने गुरुमहाराजना समक्ष अकबर बादशाहे पोताना हाथेज छोडी दोघां, तथा कारागृहने विषे ( केदमां ) रहेला घणा बंदीवानोने ( केदी भोने) मुक्त कर्या. त्यास्वाद गुरुमहाराजने प्रार्थना करी अकबर बादशाहे धर्म श्रवण करवा निमित्ते महादक्ष उपाध्याय श्री शांतिचंद्रजीने राख्या. तेमणे पण पोताना बनावेल कृपारस कोश नामना शास्त्ररूपी पाणोवडे सिंचन करवाथी कृपारूपी लता (वेलडी) अकबर बाद
भाषान्तरम्
॥ ५६ ॥
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भाषान्तरम्
पर्युषणाष्टाह्निका व्याख्यान
॥५७॥
शाहना हृदयने विषे वृद्धि पामी. ते आ प्रकारे छे-अकबर बादशाहना जन्म संबंधी एक मास ॥१॥ तथा पर्युषण संबंधी बार दिवसो ॥२॥ तथा सर्वे रविवारना दिवसो ॥३॥ तथा सर्वे संक्रांति तिथिो ॥४॥ तथा नवरोजानो एक मास ॥५॥ तथा सर्वे इंदना दिवसो ॥६॥ तथा सर्वे महोरमना दिवसो ॥७॥ तथा। सर्वे सोफीयाना दिवसो ॥ ८॥ इत्यादि छ मास सुधी जीवदया पाळवाना फरमानो, तथा जीजीयावेरो मुक्त कर्याना फरमानो अकबर बादशाह पासेथी लइने शांतिचंद्र उपाध्यायजीए गुरुमहाराजश्रीने अर्पण कर्या, अने निरंतर तत्वना प्रश्न पूछवाने माटे तथा धर्मश्रवण करवा माटे तथा वंदन करवा माटे राखेल शांतिचंद्र उपाध्यायजीना चरणकमळने | भक्तिथकी अकबर बादशाह आराधन करवा लाग्यो. एकदा प्रस्तावे कोइ व्यापारी शेठीयाए आंवलाना प्रमाणवाळां बे मोटां मोती बादशाहने अर्पण काँ; तेथी बादशाहे तेमनु सन्मान कयु. त्यारबाद पोताना कोशाध्यक्ष (भंडारी) जे चामरधारक बार हजार मनसुबाने धारण करनारो हतो, तेने स्थापन करवाने माटे आप्यां. ते चामरधारके पण पोताने घरे जइ स्नान करवाने माटे तत्पर थएली पोतानी स्त्रीने आप्यां, अने ते स्त्री पण बन्ने मोतीने पोताना वस्त्रने छेडे बांधी स्नान करवा लागी. ते समये भंडारीए क के-बादशाहनां मोती छे माटे सम्यक् प्रकारे सावचेतीथी रक्षण करजे. ए प्रकारे कहेवाथी ते स्त्रीए ते मोती पोताना इच्छित स्थळे मृक्यां. हवे केटलाएक दिवस व्यतीत यया पछी ते स्त्री मरण पामी, अने त्यारवाद केटलाएक दिवस पछी बादशाहे मोती माग्यां; तेथी भंडारीए कह्यु के-घरे जइ जल्दीथी लावी आपुं छु, एम कही घरे जइ सर्व स्थळे मोतीनी शोध करी; परंतु नहि मळवाथी महा चिंतारूपी आपत्तिने विषे मग्न थइ चिंता करवा लाग्यो. अहो ! ते दिवसे मारी स्त्रीने मोती रक्षण करवा
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भाषान्तरम्
पर्युषणाष्टाह्निका व्याख्यान
10
आप्यां हता; परंतु स्त्री तो मरण पामी. हवे हुँ शुं करीश ? बादशाहने शुं उत्तर आपीश ? एम विचार करी शोकने विषे मग्न थएलो जेवो बादशाह पासे जाय छे, तेवामां मार्गने विषे श्री शांतिचंद्रजी उपाध्यायजी मळ्या. तेमणे भंडारीने चिंतातुं कारण पूछयु, तेथी भंडारीए अत्यंत नम्र थइ जे स्वरूप हतु ते का. ते सांभळी उपाध्यायजीने दया आवी. तेथी भंडारीने कयु के-तुं पाछो घरे जा, अने जे स्थळे मोती आपेला हता, ते जइने याचना करजे. एवा वाक्यने श्रवण करी भंडारी घरे गयो, तथा पूर्वना पेठे पोतानी स्त्रीने स्नान करती तत्पर थएली देखी मोती माग्यां; तेथी ते स्त्रीए पण वस्त्रना छेडाथो छोडोने बन्ने मोतो आप्या. त्यारवाद ते लइने भंडारी पण महा आश्चर्यवडे चकीत थइ बादशाहने मोती आपी चामर वींजवा लाग्यो; परंतु आश्चर्यने विषे मग्न थइ जवाथी वारंवार विचार करवाथी चलायमान चित्तवाळो थइ निश्चलता पामी स्तब्धपणुं पामवा लाग्यो. त्यारबाद बादशाहे तेने पूछयु के-आजे तुं शुं वितर्क करे छे ? भूत जेवो केम देखाय छे ? तेथी कहेवा लाग्यो के, स्वामिन् ! एक महा आश्चर्य उत्पन्न थ{ छे, तेथी ज महारी आ प्रकारनी स्थिति थइ जाय छे. बादशाहे आग्रहथी पूछवाथो सर्व वृत्तांत भंडारीए कडं, ते श्रवण करी बादशाह बोल्यो के-आने विषे शुं आश्चर्य छ ? श्री शांतिचंद्र उपाध्यायजी तो बीजा खुदा सदृश छे. हवे प्रभाते कवेरी मध्ये बादशाहने धर्मश्रवण कराववा माटे श्री शांतिचंद्र उपाध्याय सभाने विषे आवी सुवर्ण बाजोठ उपर ज्यारे बेठा, ते अवसरे अंतःपुरथकी नीकळी अकबर बादशाह गुरुमहाराजने नमस्कार करी बेठो. त्यारबाद विनति करी कहेवा लाग्यो के,-हे पूज्य ! कांड पण आश्चर्य मने देखाडो. त्यारे गुरुमहाराजे कडं: काले गुलाब पुष्पनी वाढीने विषे आगीने रहे. त्यां हुं आश्चर्य देखाहीश. त्यारबाद बादशाह प्रभातकाळने विषे त्यां
SSC
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पर्युषणा
भाषान्तरम्
ष्टान्हिका व्याख्यान
॥५९॥
गयो, तथा श्री शांतिचंद्र उपाध्याय जी पण त्यां आव्या, अने बन्ने जणा अरसपरस वार्तालाप करवा लाग्या. तेवामां बादशाही नोबतना डंकानो गर्जारव सांभळ्यो. अकस्मात् नोवतनो गर्जारव श्रवण करी बादशाह चकीत थयो. पोताना सेवकोने कहेवा लाग्यो. अमारी आज्ञा विना नोवतनो गरिव बार गव्यूति-चोवीश गाउ मध्ये थतो नथी. अने आ शुं संभळाय छे ? माटे जलदीथी तपास करो. त्यारबाद सेवकोए तपास करी राजाने कह्यु-हे महाराज ! तमारा पिता हुमायु सैन्य सहित तमोने मळवा माटे आवे छे. आवी रोते कहेवानी साथे ज हुमायु आवी पोताना पुत्रने आलिंगन करी बेठो, अने अकबरना सैन्यना समग्र माणसोने मेवामीठाइथी भरेली रूपानी रकाबोओ आपी. तथा अकबर बादशाहने घj सन्मान आपी जेम आव्यो हतो तेम गयो अने क्षणमात्रमा अदृश्य थयो. त्यारबाद शांतिचंद्र उपाध्यायजीनी साथे पूर्वनी पेठे पोताना आत्माने वार्तालाप करतो बादशाहे दीठो. तेथी आश्चर्य सहित विचार करवा लाग्यो के-आ इंद्रजाळ नथी, कारण के-अमोने तथा अमारा माणसोने समर्पण करेली वस्तुओ प्रत्यक्ष देखाय छे, माटे आ चेष्टा गुरुमहाराजनीज करेली छे; तेथी अत्यंत रंजन थइ | बादशाहे गुरुमहाराजने नमस्कार करी स्तुति करी. हवे एकदा राजाए अटक देश जीतवाने माटे ३२) कोश प्रमाण प्रयाण कयु. ते अवसरे बादशाहे लश्करना माणसोनी हाजरी गणी ते मध्ये शांतिचंद्र उपाध्यायर्नु पण नाम श्रवण करवामां आव्यु, ते सांभळी बादशाहे विचार कर्यो के-अहो! वाहन अने उपानह रहित ए महाकष्टने पामेला इशे; तेथी पोताना सेवकोने कड्यु के-गुरुमहाराजने बोलावो. सेवकोए जइ गुरुमहाराजने कह्यु-हे स्वामिन् ! आपने बादशाह याद करे छे. आ समये मुनोंद्रनो अवस्था जूदा प्रकारनी थएली छे. पगने विषे सोजा चढी गया छ,
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पर्युषणा -
ष्टाह्निका
व्याख्यान
॥ ६० ॥
तेथी एक डगलुं मात्र आगळ चालवा समर्थमान नथी. तथा टोपरा (काचली) ने विषे रहेल प्रामुक जळवडे वस्त्रना छेडाने आर्द्र ( भीनो) करी पोताना हृदयने विषे स्थापन करेल छे, तथा वे शिष्यो वैयावच्च करे छे. एवी रीते देखीने सेवकोए बादशाहने सर्व स्वरूप कां, तथा बादशाहे सुखपाल ( पालखी ) मोकलावी. त्यारबाद शांतिचंद्र उपाध्यायजीए एक काष्टनी वळी मंगावी तेना उपर आरोहण थया, अने बने शिष्यो तेना छेडाने उपाडीने चाल्या. ते प्रकारनी अवस्था सहित गुरुमहाराजने आवता देखी बादशाह विचार करवा लाग्यो. अहो ! गुरुमहाराजनुं सत्व केवा प्रकार छे ? खरेखर गुरुमहाराजने धन्य छे, के जेओ महारा पछाडी कष्ट वेठीने आवे छे ! अन्यथा महारा पासे तेमने शुं लाभ छे ? मारा वस्त्र, पात्र तेमज तृणमात्रने पण ग्रहण करता नथी. अहो ! समर्थ एवा गुरुमहाराजनी निरीहता कोइ अलौकिक प्रकारनी छे. त्यारबाद राजा सामो जइ नमस्कार करो कहेवा लाग्यो हे स्वामिन्! महारा माटे आप साहेब महादुःखने पाम्या, माटे महारो अपराध क्षमा करो. आज में आपना चरणकमळ नहि देखेल होवाथी आपने आवा प्रकारनी तस्दी आपी छे. हवे पछी आपे आवी रीते महत् प्रयाण न कर. धीमे धीमे पछाडी आवकुं. एम कही क्रमे करी बादशाह देशाधिपुर प्रत्ये पहोंची तेनो घेरो घाली रह्यो, अने बार वर्ष व्यतीत थयां परंतु ते कील्लो स्वाधिन थयो नहि; एकदा मुसलमानो बादशाहने कहेवा लाग्या, " जीवे जपुन पातस्याहुंकी जादीजं छती घडी घडीकी बला दूर साहिब रे राज ए शांतिचंद्र सेवराकुं वार वार तुम सलाम कदम पोसी करते हो, दीन दुनीके पातस्याह अदवी खुदा हो कर उस वास्ते गढ लीया नहि जाता है. " एवां वचनो श्रवण करी बादशाह मौन करी रह्यो अने ते स्वरूप गुरुमहाराजने कां; तेथी गुरु
भाषान्तरम्
॥ ६० ॥
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पर्युषणा
भाषान्तरम्
ष्टाह्निका व्याख्यान
महाराज बोल्या के-जे दिवसे किल्लो ग्रहण करवानी इच्छा थाय ते दिवसे आपणे ग्रहण करशुं, आ बाबत तहारे लेशमात्र चिंता करवी नहि, परंतु तहारा सैन्यने अहीं ज राखq. आपणे बन्ने जइशं; सैन्यने कहेवू के नगर मध्ये के नगर बहार कोइनी हिंसा करवी नहिं तथा नाना-मोटा प्राणीओने मारवा नहि पण रक्षण करवू. एवी रीते शिक्षा आपी बन्ने एकाकी चाल्या. तेमना पछाडी सैन्य चाल्यु. ते अवसरे मुसलमानो बोलवा लाग्या “ एसे वराके पातसाह फिरके संगे लागा, ए सेवरा पातसाहकी पातसाहइ डबो देगा. दुश्मनके हाथे अकबरको दे देवेगा." इत्यादिक अनेक वचनोने सांभळतो बादशाह ते किल्लानी नजीक गयो. ते अवसरे गुरुमहाराजे एक फुकमात्रबडे करी किल्लानी आसपास रहेली खाइने पूरी दीधी, बीजी फुकमात्र मारवावडे करी शत्रुसैन्यने चित्रामणने विषे
आलेखेलाना समान चित्रसंस्थित करी दी; तथा त्रीजी फुकमात्र मारवावडे करी दरवाजाना द्वार जेम धाणो फुटे तेम फुटी गया. ते ज समये बादशाह पोताना हस्तवडे करी शत्रुने ग्रहण करीने आश्चर्यवडे चकीत थइ रह्यो. त्यारबाद बादशाहे गुरुमहाराजने कयु के-महारा उपर किंचितमात्र कृपा करी, हे पूज्य ! कांइक आदेश करो. ते अवसरे गुरुमहाराजे दर वर्षे चौद क्रोड द्रव्यनी आवकनो लाभ करावनार जीजीयावेरो मुक्त करवानी तथा चकलानी जिह्वा (जीभो) नुं भक्षण तमारे करवु नहि, आवी मागणी धर्मार्थने माटे करी; तेथी अकबर बादशाहे बहुमानथी गुरुमहाराजनी मागणीनो स्वीकार कर्यो. त्यारवाद तरकडाओने बोलावी बादशाहे का के-अब बेफिकर तुम हुए, ए सेवरा अदबी खुदा है, इनकी बेअदबी मत करनी, देखो यह कैसा है. अपने राहपर चलता है, अदनाकु महारी पातसाइ देवे तो मैं क्या करूं? वास्ते सब इनकी कदम पोसी करो. कैसा यह बेन माफ कीह,
॥ ६१॥
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भाषान्तरम्
पर्युषणाष्टाह्निका व्याख्यान
॥६२॥
साहिबके राहपर चलता है. एती करामतका धणी है, तो की किसी कोई जानहि देते हैं. इतना काम मेरे खातर गुरुके हुकम पर कीया है." एवी रीते कहीने सैन्य सहित अकबर बादशाह दिल्लीने विषे आव्यो अने श्रीमान् श्री शांतिचंद्र उपाध्यायजीने नमस्कार-स्तुति-बहुमान करो गुरुमहाराज पासे मोकल्या. एवी रीते भव्यजीवोए पण अमारी उद्घोषणा कराववी, कारण के दयाना अध्यवसाय विना मनुष्योनो मानवजन्म सर्वथा व्यर्थ छे. एक जीवदया ते ज भव्यजीवोने संसारथकी मुक्त करवा समर्थमान छे. सिद्धांतमा कयुं छे के
"कल्लाणकोडीजणणी, दुरंत-दुरियारिवग्गनिटवणी।
संसारजलधितरणी, इक्कु चिय होइ जीवदया ॥१॥" भावार्थ:-जीवदया ते कोटी कल्याणने उत्पन्न करनारी छे, तथा दुःखे करीने त्याग थइ शके एवा पापरूपी प्रचंड शत्रुवर्गने नाश करनारी तथा संसारसमुद्रथी तारवा माटे समर्थमान केवळ एक जीवदया जछे. अन्यत्र पण कयु छ के
यदुक्तं महाभारतशांतिपर्वप्रथमपादे" सर्वे वेदा न तं कुर्युः, सर्वे यज्ञाश्च भारत ! ।
सर्वे तीर्थाभिषेकाश्च, यः कुर्यात् प्राणिनां दया ॥१॥" भावार्थः-श्रीमान् कृष्णमहाराजा युधिष्ठिरने कहे छे के है भारत ! समय जीवोने अभयदान आपी जीवदया
॥
२॥
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पर्युषणा - ष्टान्हिका
व्याख्यान
॥ ६३ ॥
पाळवाथी जे लाभ थाय छे, ते लाभ सर्व वेदोना पठन-पाठन करवाथी पण थतो नथी, तथा जीवदया पाळवाथी जे पुन्य उत्पन्न थाय छे, ते पुन्य सर्व प्रकारना यज्ञो करवाथी पण थतुं नथी, तथा जे लाभ जीवोना संरक्षण करवायी उत्पन्न थाय छे ते लाभ सर्व तीर्थोंना अभिषेको करवाथो पण थतो नथी.
तथा मार्कडेयपुराणेऽपि -
66
यथा मम प्रियाः प्राणास्तथा तस्यापि देहिनः ।
इति मत्वा न कर्त्तव्यो, घोरः प्राणिवधो बुधैः ॥ १ ॥ "
भावार्थ:- हे आत्मन् ! तहारे विचार करवो जोइए के जेवी रीते महारा प्राण मने वल्लभ छे, तेम बीजा जीवोने पण पोतना प्राण अत्यंत वल्लभ हशे अर्थात् छे, एवं नाणी पंडित पुरुषोए घोर (भयंकर) एवो प्राणीवध करवो नहि.
पुनरप्युक्तम् —
“ दीयते मार्यमाणस्य, कोटीं जीवितमेव वा ।
धनकोटीं परित्यज्य, जीवो जीवितुमिच्छति ॥२॥
""
SETOO CREEK
भाषान्तरम्
भावार्थ:- कोइ पण माणस कोइ जीवने मारवाने माटे तत्पर थएल होय ते समये तेमने कोटी द्रव्य तथा जीवितदान आ बनेमांथी तेमनी इच्छा अनुसार मागणी करवा दे तो मरणथी भय पामेल ते जीव, कोटी घननो ॥ ६३ ॥
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भाषान्तरम्
पर्युषणाष्टाह्निका व्याख्यान
॥६४॥
त्याग करी जीवितव्यने ग्रहण करशे अर्थात् घणी लक्ष्मीथकी पण पोताना माण विशेष वल्लभ होय छे. वळी कधु छ के
विष्णुपुराणेऽप्युक्तम्"पृथिव्यामप्यहं पार्थ ! वायावग्नौ जलेऽप्यहं । वनस्पतिगतश्चाहं, सर्वभूतगतोऽप्यहम् ॥१॥" ___ भावार्थ:-श्रीमान् कृष्णमहाराज कहे छ के-हे पार्थ ! हे युधिष्ठिर ! पृथ्वीने विषे तथा जळने विषे तथा | वायुने विषे तथा वनस्पतिने विषे तेमज सर्व भूतने विषे हुंज रहेलो छु. वळी पण कयु के के:
“जले विष्नुः स्थले विष्नुर्विष्नुः पर्वतमस्तके ।
ज्वालामालाकुले विष्नुः, सर्व विष्नुमयं जगत् ॥२॥" भावार्थ:-जळने विषे विष्नु छे, तथा स्थळने विषे विष्नु छ, तथा पर्वतना मस्तकने विषे पण विष्नु छे, तेमज अग्निनी ज्वाळामालाने विष तथा वनस्पतिने विषे पण विष्नु छे. किंबहुना? सर्व जगत् पण विष्नुमय ज छे.
___“यो मां सर्वगतं ज्ञात्वा, न च हिंस्येत् कदाचन ।
.. तस्याहं न प्रणश्यामि, स च मे न प्रणश्यति ॥३॥ भावार्थ:-जे प्राणी मने सर्वगत (व्याप्त) जाणी कोइ दिवस हिंसाने न करे अने सर्वगत एवा मने नहि मारे तेने हुं मारीश नहि.
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पर्युषणा - टाह्निका
व्याख्यान
॥ ६५ ॥
SEEEEEEESO
पुनरपि महाभारते उक्तम्
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यो ददाति सहस्राणि गवामश्वशतानि च । अभयं सर्वसत्त्वेभ्यस्तद्दानमतिरिच्यते ॥ १ ॥ "
भावार्थ:- कोइ माणस हजारो गायो अने सेंकडो घोडाओना दानने करे, अने बीजी बाजु सर्व प्राणीओने अभयदान आपे तो गायो तथा घोडाओना दान करतां अभयदान विशेष फळपद थाय छे. वळी पण कां छे केः“ कपिलानां सहस्राणि, यो द्विजेभ्यः प्रयच्छति ।
एकतः जीवितं दद्यात्, न च तुल्यं युधिष्ठिर ! ॥२॥”
भावार्थ:- हे युधिष्ठिर ! एक माणस ब्राह्मणोने हजार गायोनुं दान आपे अने एक जीवने अभयदान आपे, तो पण ते बन्ने तुल्य थाय नहि, अर्थात् गायोना दानथकी पण जे अभयदान ते विशिष्ठ लाभदायक छे. " हेमधेनुधरादीनां दातारः सुलभा भुवि । दुर्लभो पुरुषो लोके, यः प्राणिष्वभयप्रदः ॥३॥ "
भावार्थ:- सुवर्ण, गाय, भूमि वगेरेना दान करनारा दुनियाने विषे घणा ज सुलभ होय छे; परंतु प्राणीओने अभयदान आपनार पुरुष तो आ लोकने विषे दुर्लभ ज देखवामां आवे छे. अर्थात् मणि, माणेक, हीरा, सुवर्ण, रजत, वस्त्र, पात्र, गाय, घोडा, पृथ्वी वगेरेना दान आपनारा आ दुनियामां घणा ज देखवामां आवे छे; परंतु जीवोने अभयदान आपनार तो कोई महात्मा विरला ज नजरे पडी शके छे.
भाषान्तरम्
॥ ६५ ॥
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| भाषान्तरम्
पर्युषणा-I ष्टान्हिका व्याख्यान
॥६६॥
“ यो दद्यात् कांचनं मेलं, कृत्स्नां चैव वसुंधरां ।
एकस्य जीवितं दद्यात्, न च तुल्यं युधिष्ठिर !॥४॥" भावार्थ:-जे माणस कांचनमय मेरुपर्वत जेटलुं सुवर्णतुं दान आपे तथा समग्र पृथ्वीनुं दान आपे अने एक जीवने जीवितव्य एटले अभयदान आपे, तो पण हे युधिष्ठिर ! बराबर यतुं नवी, अर्थात् उपरोक्त दान करता एक जीवने अभयदान आपवाथी महाफळ प्राप्त थाय छे..
माटे सर्व जीवोए पोतानी सुकृतनी लक्ष्मीनो व्यय जीवदयाने विषे सारी रीते करी पर्युषण महापर्वने विषे विशेष प्रकारे अमारीना पटहनी उद्घोषणा करावची, तथा पूर्वोक्त कथन करवामां आवेल रीत प्रमाणे साधर्मिक भाइओनुं वात्सल्य करवं. बळी पण पर्युषण महापर्वने विषे नीचे मुजब धार्मिक कर्तव्यो निरंतर करवा. श्री जिनमंदिरने विषे जइ जिनेश्वर महाराजर्नु प्रक्षालन करी स्नात्र महोत्सव करवो ॥१॥ तथा देवद्रव्यनी | वृद्धि करवी॥२॥ तथा साधर्मिक भाइओनी भक्ति करवी॥३॥ तथा गुरुमहाराजनी पूजाभक्ति करवी ॥४॥ तथा श्रुत-सिद्धांतोनी (पुस्तकोनी) पूजा करवी ॥५॥ तथा दिनदुःस्थित प्राणीमोनो उद्धार करवो ॥६॥ तथा जीवदया पाळी प्राणीओनुं रक्षण करवा दृढ प्रयत्नो करी जीवोनो बचाव करवो ॥ ७॥ तथा धर्मजागरण करवु ॥८॥ तथा सुपात्रने विषे दान देQ ॥९॥ तथा तीर्थनी प्रभावना करवी ॥ १०॥ तथा गुरुमहाराज पासे प्रायश्चित लइ आत्मानी शुद्धि करवी ॥११॥ तथा बन्ने काळना आवश्यकादिक (पतिक्रमण) क्रिया करवी ॥ १२॥ तथा नियमा
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भाषान्तरम्
पर्युषणाष्टान्हिका व्याख्यान
॥६७॥
दिकने धारण करवा ॥१२॥ इत्यादिक प्रकारना उत्तमोत्तम धार्मिक कर्सष्योने करवावडे करी श्री पर्यषण महापर्व- आराधन करी भव्यजीवोए पोतानो मानवजन्म सफळ करवो.
॥ ग्रंथकार-प्रशस्तिः॥ " श्रीमत्तपागच्छनभोनभोमणिः, शालीलघुयः सूरिसोममोददः।
तत्पदृभानोदयसोमसूरिणा, वह्न्यांकहस्तिशशिवर्षस्वीकृतम् ॥१॥" भावार्थ:-श्रीमान तपागच्छरूपी गगनमंडळने विषे सूर्य समान लघुपोशालना पूज्य श्री सोमहर्ष (आणंदसोम) सुरीश्वरजी थया.तेनी पाटे थएला श्री उदयसोमसूरि महाराजे संवत् १८९३ ना वर्षे अष्टाहिका व्याख्यान नामना | ग्रंथनी रचना करेली छे. ते यावच्चंद्रदिवाकरौ पर्यंत जयवंत वर्ती वाचक तथा श्रोता (श्रवण करनारा) भव्यजीवोने महाकल्याणना हेतुभूत थाओ.
॥ इति श्री पर्युषण-पर्व माहात्म्यं संपूर्णम् ॥
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________________ भाषान्तरम् पर्युषणाष्टाह्निका व्याख्यान // भाषांतरकारनी प्रशस्तिः॥ इति श्रीमान् तपागच्छरूपी आकाशमंडळने विषे दिनमणि (सूर्य) समान, तेमज महान् गुणगुणना भंडार, गुणरूपी मणिओने उत्पन्न थवाना स्थानभूत रोहणाचल पर्वत समान श्रीमान् मुक्तिविजयजी (मूलचंदजी) गणीना शिष्य गुरुवर्य श्रीमान् गुलाबविजयजी महाराजना शिष्य मुनि मणिविजये रचेली अष्टाहिका व्याख्याननी भाषा समाप्त थइ. संवत् 1970 ना वर्षे आसो शुदि एकादशी अने मंगळवारने दिवसे लुणावाडाने विषे श्री चिंतामणि पार्श्वनाथजीना प्रसादथी आ भाषांतर ग्रंथ समाप्त थयो. PRASNA श्री अष्टाह्निका व्याख्यान भाषांतर समाप्त. // 68 //