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भाषान्तरम्
पर्युषणाष्टाह्निका
भावार्थ:-शास्त्रकारमहाराजा शास्त्रने विषे कहे छे के व्यवसायना फलभूत वैभव छे अने वैभवनो सार सतपात्रने विषे स्थापन कर, ते छे. हवे ते सुपात्रना अभावे व्यापार अने वैभव बन्ने दुर्गतिना हेतुभूत थाय छे.
एवी रीते पोतानी ऋद्धिथकी धर्मनी ऋद्धिनी संपदा उपार्जन थाय छे. अन्यथा धर्मने विषे ऋद्धि नहि खर्चवाथी पापनी ऋद्धि थाय छे, अने ते पापिष्ठ ऋद्धि कहेवाय छे.
व्याख्यान
" धम्मिढी १ भोगिढी २, पाविठ्ठी ३ इअ तिहा भवे इही।
सा भणइ धम्मिही,जा दिज्जइ धम्मकज्जेसु॥१॥ सा भोगिढी गिज्जइ, सरीरभोगंमि जीइए उवओगो ।
जा दाणभोगरहिया, सा पाविठ्ठी अणत्थफला ॥ २॥” जुयलं ॥ भावार्थः-धर्मद्धि १, भोगद्धि २ अने पापद्धि ३ आ त्रण प्रकारनी ऋद्धि कहेलो. छे जे ऋधि धर्ममार्गने विषे वापरवामां आवे ते ऋद्धि धर्मनी ऋद्धि कहेवाय छे ॥१॥ तथा जे शरीरादिकना भोगमां वापरवामां आवे ते भोगनी ऋद्धि कहेवाय छे. तथा जे दान, भोग रहित जे ऋद्धि होय छे ते पापनी ऋद्धि कहेवाय छे.
इत्यादि अनेक दृष्टांतो जाणवा तथा आ पर्युषण महापर्वने विषे आ प्रकारनां कर्त्तव्यो करवा. पोते उपशम