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________________ भाषान्तरम् पर्युषणाष्टाह्निका व्याख्यान ३३॥ आवस्सयमाइयं, किरियकलावं अमुच्चमाणी। अदीणमाणसाए, एस तवो तीइ अणुचिन्नो ॥३॥" भावार्थ:-छद्रु, अदुम, दशम, द्वादश एटले बे, त्रण, चार, पांच वगेरे उपवासो कर्या तथा विगयनो त्याग करी दश वर्ष सुधी नीवीयो करी तथा बे वर्ष निर्लेप चणानो तथा बे वर्ष अँजेला चणानो आहार कर्यो. सोळ वर्ष सुधी मासक्षमण कर्या अने वीश वर्ष आंबेल काँ. एवी रीते लक्ष्मणा साध्वीए पचास वर्ष सुधी तप कर्यो, | अने तप तपता पण आवश्यकादिकनी क्रियाने नहि छोडती तथा दीन दुःस्थित मनने नहि करती अर्थात् तपना परिश्रमने बीलकुल मनने विषे नहि लावती खेदनो त्याग करी उत्तम मनवडे करी लक्ष्मणा साध्वीए उपर प्रमाणे तप कर्यो. एवी रीते उपर प्रमाणे दुष्कर तपने तपतां पण लक्ष्मणा साध्वी शुद्ध थइ नहि; परंतु आर्तध्यानथी मरण पामी, दासदासीना असंख्याता भवोने विषे अनुभवेलुं छे दुःख जेणे एवी ते लक्ष्मणा साध्वी पद्मनाभ तीर्थकर महाराजना (श्रेणिकराजानो जीव जे आवती चोवीशीमां प्रथम तीर्थंकर थनार छे तेमना) शासनने विषे मुक्ति | पामशे. ते माटे का छे के: यदुक्तम्"ससल्लो जइवि कठ्ठग्गं, घोरं वीरं तवं चरे। दिव्वं वाससहस्सं तु, तओ तं तस्स निष्फलं ॥१॥" भावार्थ:-जेना हृदयने विषे शल्य रहेलं छे, ते महा कष्टकारक अने घोर वीर तपने देवताना हजारो वर्ष ॥ ३२ ॥
SR No.600358
Book TitleParyushanasthahnika Vyakhyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManivijay
PublisherHirachand Hargovan Kapadia
Publication Year
Total Pages72
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size5 MB
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