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________________ भाषान्तरम् पर्युषणाटालिका व्याख्यान ॥४२॥ अन्य वचनोनी मागणी करो आवी रीते अन्य अन्य करतां तमारां वचनो सर्वथा दूर दूर जाय छे. जो ते पण तमाराथी पाळी शकातुं नथी तो तमे तमारा पुत्रनुं मस्तक कापी मने शीघ्रताथी अर्पण करो. आ समये राजा विचार करीने बोल्यो के-हे सुलोचने ! महारो पुत्र महाराथी उत्पन्न थएलो छे, ते माटे महारूं मस्तक तहारा हस्तकमळमां अस्तु (हो), एम कही राजा हस्तने विषे खड्ग ग्रहण करी पोतार्नु मस्तक कापवा जेवो तत्पर थयो तेवामा बन्ने देवीओए खड्गनी धारा बांधी दीधी; परंतु राजाना सत्यनी धारा तेमनाथी बंधाइ शकी नहि. हवे खड्गनी धारा बंधाइ जवाथी राजा विलक्ष थइ गयो, अने कंठकमळ कापवा माटे नवीन नवीन शस्त्र ग्रहण करवा लाग्यो तेमज देवीशक्तिथी तमाम शस्त्रनी धारा बंधाइ जवा मांडी. राजा ज्यारे लेशमात्र पोताना सत्यथकी चलायमान थयो नहि त्यारे ते स्त्रीओ पोताना मूल रूपने प्रगट करी अति आदर सहित जय जय प्रकारना अनेक प्रकारे शब्दोनो वारंवार उच्चार करी आनंदथी बोलवा लागी. यतः" जय त्वं वृषभस्वामिकुलसागरचंद्रमाः। जय सत्त्ववतां धुर्य ! जय चक्रीशनंदन ! ॥१॥" भावार्थ:-श्रीमान् ऋषभदेवस्वामीना कुळरूपी समुद्रने उल्लास पमाडी वृद्धि करवामां चंद्रमा समान हे राजन् ! तमे जयवंत वत्तों (थाओ) तथा हे सच्चवंत पाणीओने विषे शिरोमणि! तमे जयवंत वत्तों तथा हे चक्रवत्तींना पुत्र ! तमे जयवंत वत्तों. अहो ! तमारुं धैर्य, अहो ! तमारा मननु निश्चलपणुं, जे माटे पोताना विनाशने विषे पण लेशमात्र व्रतना ॥ ४२ ॥
SR No.600358
Book TitleParyushanasthahnika Vyakhyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManivijay
PublisherHirachand Hargovan Kapadia
Publication Year
Total Pages72
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size5 MB
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