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________________ | भाषान्तरम् पर्युषणा-I ष्टान्हिका व्याख्यान ॥६६॥ “ यो दद्यात् कांचनं मेलं, कृत्स्नां चैव वसुंधरां । एकस्य जीवितं दद्यात्, न च तुल्यं युधिष्ठिर !॥४॥" भावार्थ:-जे माणस कांचनमय मेरुपर्वत जेटलुं सुवर्णतुं दान आपे तथा समग्र पृथ्वीनुं दान आपे अने एक जीवने जीवितव्य एटले अभयदान आपे, तो पण हे युधिष्ठिर ! बराबर यतुं नवी, अर्थात् उपरोक्त दान करता एक जीवने अभयदान आपवाथी महाफळ प्राप्त थाय छे.. माटे सर्व जीवोए पोतानी सुकृतनी लक्ष्मीनो व्यय जीवदयाने विषे सारी रीते करी पर्युषण महापर्वने विषे विशेष प्रकारे अमारीना पटहनी उद्घोषणा करावची, तथा पूर्वोक्त कथन करवामां आवेल रीत प्रमाणे साधर्मिक भाइओनुं वात्सल्य करवं. बळी पण पर्युषण महापर्वने विषे नीचे मुजब धार्मिक कर्तव्यो निरंतर करवा. श्री जिनमंदिरने विषे जइ जिनेश्वर महाराजर्नु प्रक्षालन करी स्नात्र महोत्सव करवो ॥१॥ तथा देवद्रव्यनी | वृद्धि करवी॥२॥ तथा साधर्मिक भाइओनी भक्ति करवी॥३॥ तथा गुरुमहाराजनी पूजाभक्ति करवी ॥४॥ तथा श्रुत-सिद्धांतोनी (पुस्तकोनी) पूजा करवी ॥५॥ तथा दिनदुःस्थित प्राणीमोनो उद्धार करवो ॥६॥ तथा जीवदया पाळी प्राणीओनुं रक्षण करवा दृढ प्रयत्नो करी जीवोनो बचाव करवो ॥ ७॥ तथा धर्मजागरण करवु ॥८॥ तथा सुपात्रने विषे दान देQ ॥९॥ तथा तीर्थनी प्रभावना करवी ॥ १०॥ तथा गुरुमहाराज पासे प्रायश्चित लइ आत्मानी शुद्धि करवी ॥११॥ तथा बन्ने काळना आवश्यकादिक (पतिक्रमण) क्रिया करवी ॥ १२॥ तथा नियमा Gree
SR No.600358
Book TitleParyushanasthahnika Vyakhyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManivijay
PublisherHirachand Hargovan Kapadia
Publication Year
Total Pages72
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size5 MB
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