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________________ भाषान्तरम् पर्युषणाष्टाह्निका व्याख्यान ॥४७॥ भावार्थ:-हं जिनेश्वर महाराजना मंदिर प्रत्ये गमन करीश एम चितवना करनार भव्यजीव चोथभक्त | (उपवास) ना फळने पामे छे, अने उठतो सतो छ? (बे उपवास) ना फळने पामे छे, तथा चालवाने माटे उद्यम करतोथको अट्ठम (त्रण उपवास) ना फळने पामे छे, अने श्रद्धालु थइ मार्गने विषे चालवा मांड्यो थको दशम (चार उपवास) ना फळने पामे छे, तथा जिनेश्वर महाराजना मंदिरना द्वार पासे पहोंचता द्वादश (पांच उपवास) ना फळने पामे छे, अने जैन मंदिरना मध्य भागने विषे जवाथी पाक्षिक (पंदर उपवास) ना फळने पामे छे, अने जिनेश्वर महाराजने देखवाथी एक मासना उपवासना फळने पामे छे. किं च “संपत्तो जिणभवणे, पावइ छम्मासिअं फलं पुरिसो। संवच्छरिअं तु फलं, दारदेसठियो लहइ ॥२॥" भावार्थः-वळी जिनेश्वर महाराजना भवनने पाम्योथको पुरुष जे ते छ मासना उपवासना फळने पामे छे, अने देरासरजीना द्वार देशने विषे रह्योथको संवत्सरना उपवासना फळने पामे छे. वळी का छे के “पयाहिणेण पावइ, वरिससयं फलं तओ जिणे महिऐ। पावइ वरिससहस्सं, अणंतगुणं जिणे थुणिए ॥३॥" भावार्थः-प्रदक्षिणा देवाथी सो वर्षना उपवासना फळने पामे छे, तथा जिनेश्वर महाराजनी पूजा कर्ये सते ॥४७॥
SR No.600358
Book TitleParyushanasthahnika Vyakhyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManivijay
PublisherHirachand Hargovan Kapadia
Publication Year
Total Pages72
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size5 MB
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