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भाषान्तरम्
पर्युषणाष्टाह्निका व्याख्यान
भावार्थ:--त्रिवर्गना सम्यक् प्रकारे साधन विना मनुष्यनु आयुष्य पशुनी पेठे निष्फल जाणवू, तथा ते धर्म, अर्थ अने कामने विषे पण शास्त्रकार महाराजा धर्मने श्रेष्ठ कहे छेकारण के ते धर्मना आराधन विना अर्थ अने काम उत्पन्न थता नथी. अर्थात् धर्मथकी अर्थ (पैसा)नी प्राप्ति थाय छे, तथा पैसाथकी काम (मननी इच्छा मुजब धारेलां कर्त्तव्यो) सिद्धताने पामे छे.
हवे शास्त्रकारमहाराजा प्राणियोने प्रतिदिवसे करवानां कर्तव्यो कहे छे:
काव्यम्. “ जिनेन्द्रपूजा गुरुपर्युपास्तिः, सत्त्वानुकंपा शुभपात्रदानं ।
गुणानुरागः श्रुतिरागमस्य, नृजन्मवृक्षस्य फलान्यमूनि ॥३॥" भावार्थः-जिनेश्वर महाराजनी अष्टपकारी तथा सत्तरभेदी तथा एकवीशपकारी पूजा करवी १। तथा कांचन-कामिनीना त्यागी तथा षड्जीवनिकायनी दयाना प्रतिपाल, स्वपरने तारनारा, सद्गुरुनी अन्न, पान, वस्तु, पात्र, वस्त्र, कंबल, औषध तथा पुस्तकादिकना आपवा वडे करी विविध प्रकारे भक्ति करवी २ तथा समग्र सच्च (प्राणियो) ने विषे अनुकंपा (दया) धारण करवी ३। तथा उत्तम शुभ पात्रने विषे दान देवू ४। तथा गुणी मनुष्योनी साथे प्रीति करी, तेमना गुणनो पक्षपात करी तेओना यशोगान करवा ५। तथा श्रीमान्
भावार्थ:-जिनेश्वर महादजीवनिकायनी दयाना प्रतिमा विविध प्रकारे भक्ति करार दान देवू ४।।
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