Book Title: Paryushanasthahnika Vyakhyan
Author(s): Manivijay
Publisher: Hirachand Hargovan Kapadia

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Page 53
________________ भाषान्तरम् पर्युषणाष्टान्हिका व्याख्यान ॥४९॥ भावार्थ:-पूर्वे नहि भणेला ज्ञानने भणवार्थी, तथा श्रुतज्ञाननी भक्ति करवाथी, तथा जैनशासननी प्रभावना करवाथी वगेरे उपरोक्त कारणोथी आत्मा तीर्थकरपणाने पामे छे. तथा आ पर्युषण पर्वने विषे श्रीसंघनी भक्ति करवी, समग्र जिनालय (जैनमंदिर) ने विष चैत्यवंदनादिक करी, तथा पूजादिक कर्तव्योथी श्री जैनशासननी उमति करवी, जेमके एकदा प्रस्तावे दश पूर्वधर श्रीमान् वज्रस्वामीमहाराज दुष्काळना समयने विषे संघने पटने विषे स्थापन करी सुभिक्षपुरी प्रत्ये लइ गया हता. कई छे के " ये साधर्मिकवात्सल्ये, स्वाध्याये चरणेऽपि वा। दीर्घप्रभावनायां चोद्युक्तास्तांस्तारयेन्मुनिः ॥ १॥" भावार्थः-जे साधर्मिक भाइभोना वात्सल्य करवाने विष, तथा स्वाध्याय ध्यानने विषे, तथा चारित्रने विषे, तथा शासननी महापभावनाने विषे, ऊजमाळ होय छे, तेने ज मुनि तारवाने माटे समर्थमान छे... हवे ते सुभिक्षपुरीने विषे बौद्ध राजाए पुष्पनो एवी रीते निषेध कर्यों के-जैनचैत्यने विषे कोइए पुष्पो आपवां नहि. त्यारबाद पर्युषण पर्व आव्या, ते समये श्रावको श्रीमान् वज्रस्वामीमहाराजने विनति करवा लाग्या. " तीर्थोन्नतिकृते नित्यं, उद्यते साधवोऽपि हि । तेनेह भवता स्वामिन् !, कार्या तीर्थप्रभावना ॥१॥"

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