Book Title: Paryushanasthahnika Vyakhyan
Author(s): Manivijay
Publisher: Hirachand Hargovan Kapadia

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Page 10
________________ भाषान्तरम् पर्युषणाष्टान्हिका व्याख्यान भावार्थ:-हे महानुभावो! यदि सर्व दिवसोने विषे धार्मिक क्रियापोर्नु प्रतिपालन करो तो महा उत्तम छ. यदि पुनः निरंतर ते प्रकारे धार्मिक क्रियाओ करी न शको तोपण पर्व दिवसोने विषे तो जरुराजरुर धार्मिक क्रियाओ करी, स्व-आत्मानो उद्वार करवो तेज मानवजन्मनुं सार्थक छे.. जेम विजयादशमी तथा दीवाली तथा अक्षयत्रीज इत्यादि इहलोक संबंधो पर्वने विषे उत्तम वस्त्रालंकार, आभूषणादि तथा खानपानादि करवामां आवे छे; तेमज धर्मपर्वने विषे विशेष प्रकारे उद्यम करवो. तथा धर्मने विषे पण बाह्य लोकनी अपेक्षावडे करी अन्य लोको पण एकादशो तथा अमावास्यादि पर्वने विषे केटलाक पकारना | आरंभादिकनो त्याग करे छे तथा उपवासादिक करे छे, तथा संक्रांति तथा ग्रहणादि पर्वने विषे स्वशक्ति अनुसारे महादानादिक करे छे, ते कारण माटे श्राद्ध लोकोए पर्वना दिवसो विशेष प्रकारनी धार्मिक क्रियाओवडे करीने आराधवा जोइये; तथा पांच पर्वी तथा पूर्णिमा, अमावास्या सहित छ पर्वी होय: तेमां प्रतिपक्षने विषे उत्कृष्ट त्रण त्रण पर्वी होय छे. वली वर्ष मध्ये पण अष्टाह्निका (अट्ठाइ) तथा चातुर्मासो (चौमासी) वगेरे अनेक पर्यो शास्त्रने विषे कहेला छे. ते महापर्वोने विषे आरंभादिकने सर्वथा त्याग करवो; छतां पण आरंभादिक सर्वथा त्याग करवानी शक्ति न होय तो पर्व दिवसोने विषे थोडो थोडो आरंभ अवश्य त्याग करवो. वली सचिस आहारादिक जीवहिंसामय होवावडे करी महान् आरंभ कहेवाय छे, माटे सर्व जीवोए पर्व दिवसोने विष सचित्त त्याग करवो. ते माटे कयुंछ के __" एगग्गचित्ता जिणसासणम्मि, पभावणा पूअपरायणा जे ।

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