Book Title: Paryushanasthahnika Vyakhyan
Author(s): Manivijay
Publisher: Hirachand Hargovan Kapadia
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भाषान्तरम्
पर्युषणाष्टान्हिका व्याख्यान
॥३१॥
चकली-चकलाने मैथुनसेवन करतां देखी विचार कर्यो के-जिनेश्वरमहाराजे मैथुन करवानी आज्ञा केम नहीं आपी होय? हा, युक्त ज छे. जिनेश्वरमहाराज पोते अवेदी छे, ते वेदिना दुःखने जाणे नहि. आवी रीते विचार कर्यो. क्षणमात्रमा साध्वीने पाछो पश्चात्ताप थयो के-अहो में माठी चितवना करी आवी रीते आत्मनिंदा करवा लागी, अने विचार कयों के हवे आ दुष्कर्मनी आलोचना हुँ केवी रीते गुरुमहाराज पासे लइ शकीश ? इत्यादिक अनेक प्रकारे लज्जा उत्पन्न यइ, छतां पण विचार कर्यों के आलोचना लीधा सिवाय कोइ पण प्रकारे सशल्य जीवोनी शुद्धि यती नथी, एम विचारी लज्जा छोडी, आलोचना लेवा माटे पोताना आत्माने उत्साहित करी जेवी चालवा मांडी. तेवामां पगने विषे कांटो भांगवाथी अपशुकन थया जाणी क्षोभ पामी अने गुरुमहाराज पासे जइ कह्यु के-जे कोइ आवी रीते दुर्ध्यान करे तेनुं शुं प्रायश्चित ! ए प्रकारे बीजानुं नाम दइ लक्ष्मणा साध्वीए पोताना निमित्ते आलोचना लीधी, पण लज्जाथी तथा महत्त्वनी हानि थवाना भयथी साक्षात् पोतानुं नाम दइ आलोचना लीधी नहि. हवे ते प्रायश्चित्तने ठेकाणे पचास वर्ष सुधी महा दुष्कर तपने तप्या ते नीचे प्रमाणे कहे छ:____ उक्तं च- "छठुटुमदसमदुवालसेहिं, निविगश्एहिं १० दसवरिसे ।
तहय खवणएहिं दुन्नि अ, दो चेव य भुजिएहिं (च)॥१॥ मासक्खमणेहिं सोलस, वीसं वासाइं अंबीलेहिं च । लक्खण अजा एवं, कुणइ तवं वरिसपन्नासं ॥२॥

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