Book Title: Paryushanasthahnika Vyakhyan
Author(s): Manivijay
Publisher: Hirachand Hargovan Kapadia
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भाषान्तरम्
पर्युषणाष्टान्हिका व्याख्यान
भूमध्ये कृपणात्मनां सुकृतिनां श्रीतीर्थयात्रादिषु ॥ १॥" भावार्थ:-राजाभोना (क्षत्रिओना) पैसा हस्ति, घोडा तथा शस्त्रोने ग्रहण करवाने विषे तेमज बंदिवानोनीभाटचारणोनी विरुदावलीमा खर्चाय छे, तथा वेश्याओना पैसा शंगारादिक धारण करवामां खर्चाय छे. तथा वणिक (वाणिया) लोकोना पैसा व्यापारने विषे खर्चाय छे, खेडूत लोकोना पैसा खेतीवाडी करवाने विषे विनाश पामे छे, पापिष्ठ माणसोना पैसा मद्य, मांसनी अंदर जाय छे अने व्यसनोओना पैसा परस्त्री, जुगार तथा मद्यादिकने विषे जाय छे, तथा कृपण प्राणीओना पैसा भूमिने विषे रहे छे; कारण के कृपण माणसो अढारे पापस्थानक सेवी पैसा उपार्जन करी ते पैसाने विषे गाढ मूर्छा करी, ते पैताने चूलाने विषे, भूमिने विषे, पाणीआराने विषे, गायने बांधवाना खोला नीचे, तथा खाटलाना पाया विषे, तेमज घरना खूणाने विषे दाटे छे, अने अकस्मात् मरण पामवाथी ते तमाम लक्ष्मी भूमिमां ज रहे छे, अने सुकृति (पुन्यवंत ) पाणीओनी लक्ष्मी तो तीर्थयात्रा, सुपात्रदान, देवगुरुभक्ति तथा साधर्मिक भाइभोनी भक्ति तथा सातक्षेत्र, जीवदया, परोपकार तथा दीन-दुस्थित प्राणिोना उद्धारने विषे व्यय थाय छे.
यतः" ववसायफलं विहवो, विहवस्स फलं तु पत्तविणिओगो । तयभावे ववसाओ, विहवो वि अ दुग्गइनिमित्तं ॥१॥"

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