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[ ११ ] शुद्धात्मा है, वही उपादेय (ग्रहण करने योग्य) है, अन्य सब त्यागने योग्य हैं, ऐसा उपदेश करते हैं, तथा शुद्धात्मस्वभाव का सम्यक श्रद्धान-ज्ञान-आचरणरूप अभेद रत्नत्रय है, वही निश्चयमोक्षमार्ग है, ऐसा उपदेश शिष्योंको देते हैं, ऐसे उपाध्यायोंको मैं नमस्कार करता हूं, और शुद्धज्ञान स्वभाव शुद्धात्मतत्त्वकी आराधनारूप वीतराग' निर्विकल्प समाधिको जो साधते हैं, उन साधुओंको मैं वन्दता हूँ । वीतराग' निर्विकल्प समाधिको जो आचरते हैं, कहते हैं, साधते हैं वे ही साधु हैं । अहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, ये ही पंचपरमेष्ठी वन्दने योग्य हैं, ऐसा भावार्थ है ॥७॥ ऐसे पंचपरमेष्ठीको नमस्कार करनेकी मुख्यतासे श्रीयोगीन्द्राचार्यने परमात्मप्रकाशके प्रथम महाधिकार में प्रथमस्थल में सात दोहोंसे प्रभाकरभट्ट नामक अपने शिष्यको पंचपरमेष्ठीकी भक्तिका उपदेश दिया।
इति पीठिका।
अथ प्रभाकरभट्टः पूर्वोक्तप्रकारेण पञ्चपरमेष्ठिनो नत्वा पुनरिदानीं श्रीयोगीन्द्रदेवान् विज्ञापयति
भाविं पणविवि पंच-गुरु सिरि-जोइंदु-जिणाउ ।
भट्टपहायरि विण्णविउ विमलु करेविणु भाउ ॥८॥ .. भावेन प्रणम्य पञ्चगुरून श्रीयोगीन्दुजिनः ।
... भट्टप्रभाकरेण विज्ञापितः विमलं कृत्वा भावम् ॥८॥ ... अब प्रभाकरभट्ट पूर्वरोतिसे पंचपरमेष्ठीको नमस्कारकर और श्रीयोगीन्द्रदेव गुरूको नमस्कारकर श्रीगुरूसे विनती करता है-(भावेन) भावोंकी शुद्धताकर (पञ्चगुरुन् ) पंचपरमेष्ठियोंको (प्रणम्य ) नमस्कारकर ( भट्टप्रभाकरेण) प्रभाकरभट्ट (भावं विमलं कृत्वा) अपने परिणामोंको निर्मल करके (श्रीयोगीन्द्रजिनः) श्रीयोगीन्द्रदेवसे (विज्ञापितः) शुद्धात्मतत्त्वके जाननेके लिये महाभक्तिकर विनती करते हैं ॥॥
१. वे पांचों परमेष्ठी भी जिस वीतरागनिर्विकल्पसमाधिको आचरते हैं, कहते हैं और साधते हैं; तथा जो उपादेयरूप निजशुद्धात्मतत्त्वकी साधनेवाली है, ऐसी निर्विकल्प समाधिको ही उपादेय जानो। (यह अर्थ संस्कृतके अनुसार किया गया है।)