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[ १४ ] भावार्थ-वह चिदानन्द शुद्ध स्वभाव परमात्मा, आहार, भय, मैथुन, परिग्रहके भेदरूप संज्ञाओंको आदि लेके समस्त विभावोंसे रहित, तथा वीतराग निविकल्प समाधिके बलसे निज स्वभावकर उत्पन्न हुए परमानन्द सुखामृतकर सन्तुष्ट हुआ है. हृदय जिनका, ऐसे निकट संसारी-जीवोंके चतुर्गतिका भ्रमण दूर करनेवाला है, जन्म जरा मरणरूप दुःखका नाशक है, तथा वह परमात्मा निजस्वरूप परमसमाधिमें लीन महामुनियोंको निर्वाणका देनेवाला है, वही सब तरह ध्यान करने योग्य है, सो ऐसे परमात्माका स्वरूप तुम्हारे प्रसादसे मैं सुनना चाहता हूं। इसलिये कृपाकर आप कहो। इस प्रकार प्रभाकरभट्टने श्रीयोगीन्द्रदेवसे विनतीकी ॥१०॥ इस कथनकी मुख्यतासे तीन दोहे हुए ।
अथ प्रभाकरभट्ट विज्ञापनानन्तरं श्रीयोगीन्द्रदेवास्त्रिविधात्मानं कथयन्ति- . पुणु पुणु पणविवि पंच-गुरु भावें चित्ति धरेवि। . भट्टपहायर णिसुणि तुहुँ अप्पा तिविहु कहेवि (विं?) ॥११॥ .
पुनः पुनः प्रणम्य पञ्चगुरून् भावेन चित्त धृत्वा।
भट्टप्रभाकर निशृणु त्वम् आत्मानं त्रिविधं कथयामि ॥११॥
आगे प्रभाकरभट्टकी विनती सुनकर श्रीयोगीन्द्रदेव तीन प्रकारकी आत्माका स्वरूप कहते हैं-(पुनः पुनः ) बारम्बार (पञ्चगुरून् ) पंचपरमेष्ठियोंको (प्रणम्य ) नमस्कारकर और (भावेन ) निर्मल भावोंकर (चित्त) मनमें ( धत्वा ) धारण करके ( 'अहं' ) मैं (त्रिविधं ) तीन प्रकारके ( प्रात्मानं ) आत्माको ( कथयामि ) कहता हूं, सो (हे प्रभाकर भट्ट ) हे प्रभाकरभट्ट, ( त्वं ) तू (निशृणु ) निश्चयसे सुन ।
भावार्थ-बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्माके भेदकर आत्मा तीन तरहका है, सो हे प्रभाकरभट्ट; जैसे तूने मुझसे पूछा है, उसी तरहसे भव्योंमें महाश्रेष्ठ भरतचक्रवर्ती, सगरचक्रवर्ती, रामचन्द्र, बलभद्र, पांडव तथा श्रेणिक वगैरः बड़े-बड़े राजा, जिनके भक्ति-भारकर नम्रीभूत मस्तक होगये हैं, महा विनयवाले परिवारसहित समोसरणमें आके, वीतराग सर्वज्ञ परमदेवसे सर्व आगमका प्रश्नकर, उसके बाद सब तरहसे ध्यान करने योग्य शुद्धात्माका ही स्वरूप पूछते थे। उसके उत्तरमें भगवानने यही कहा, कि आत्म-ज्ञानके समान दूसरा कोई सार नहीं है ।