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दो शब्द
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निग्रंथ वीतरागी गुरुधों के संपर्क से हमारा जितना उपकार हो सकता है उतना कभी भी सरागी धर्मोपदेशकों से नहीं हो सकता; काररण कि जिसका उपकार किया जाता है वह पहले अपने प्रति उपकार करने वाले की प्रोर दृष्टि डालता है और उसमें यदि वह जैसा कहता है वैसे ही गुरण देखता है तो श्रद्धा करके फिर उपकारकर्त्ता के कथन का भक्तिपूर्वक पालन करता है । स्वर्गीय परम पूज्य १०८ श्री ज्ञानमूर्ति श्राचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने भी इस ओर अपना सक्रिय सहयोग दिया । मुझे परम सौभाग्य से उनका संपर्क प्राप्त हुप्रा; उन्होंने अपना कल्याण तो किया ही साथ ही अपने स्वर्गवास के पश्चात् भी जैन संस्कृति का उद्धार और जन कल्याण होता रहे; इसके लिये श्री १०८ श्री प्राचार्य प्रवर विद्यासागरजी महाराज को तथा श्री विवेकसागरजी महाराज को तैयार किया । इन दोनों ही निर्ग्रथ स्नातकों के द्वारा भिन्न २ क्षेत्र में भिन्न २ प्रकार के स्वपरोपकार के कार्य होते ही रहते | इनकी जितनी भी शिष्य प्रशिष्य परम्परा है वह अभी तक अपना कार्य निर्बाध रूपसे कर रही है । मैंने श्री चारित्रविभूषरण मुनिराज विवेकसागरजी को बहुत निकट से देखा । ये नारियल के - समान ही सिद्ध हुये अर्थात् बाहर से चाय आदि के कठोर नियम दिलाने वाले किन्तु भीतर से जीवों के प्रमाद को दूर कर, सच्चा हित करने वाले साधु परमेष्ठी हैं । आप स्वयं रात्रि को १।। - २ बजे से ७-८ बजे प्रातःकाल तक एकासन से बैठकर आत्मचिन्तन, बारह भावना, षोडशकाररण - भावनादि के शुभ ध्यान में सदा नियमपूर्वक निमग्न रहते हैं । प्रातःकाल आपको प्रसन्नमुद्रा देखने ही योग्य होती है; मैं तो उस समय के अनुभव पूर्ण वाक्यों को दत्तचित्त सुनता ही रहता हूँ । आपकी निष्ठा एवं प्रमाद रहित वृत्ति को देखकर पूर्ण प्रभावित हू । हमने बहुत प्रयत्न किया कि पूज्य श्री के संघ का वर्षायोग इस वर्ष भी कुचामन में हो और संघस्थ श्री कुसुमबाई, सरलाबाई व कंचनबाई को संस्कृत भाषा का अभ्यास कराकर पुण्य संचय करें; किन्तु कुकरणवाली के धर्मानुरागी सज्जनों के पुण्योदय से, भारी प्रयास व लगन से यह वर्षायोग का लाभ कुकरणवाली ग्राम को ही मिला । यद्यपि यहां ३०-४० घर ही हैं; छोटी समाज ही है, फिर भी यहां के सज्जन बड़े २ काम कर दिखाने वाले हैं । इन महानुभावों ने बड़ी भक्तिपूर्वक संघकी सेवा करके कुली ( खाचरियावास) पहुंचकर गुरु-भक्तिका परिचय दिया। कई भाई यह सोचते होंगे
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