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= लघुपरमात्मप्रकाश :जे जाया माणग्गियएँ कम्म-कलंक डहविः ।। णिच-णिरंजण-णाण-मय ते परमप्प णवेवि ॥१॥
ये जाता ध्यानाग्निना कर्मकलङ्कान दग्ध्वा ।
नित्यनिरञ्जनज्ञानमयास्तान् परमात्मनः नत्व ॥१॥ (ये) जो भगवान् (ध्यानाग्निना) ध्यानरूपी अग्निसे (कर्मकलङ्कान्) पहले कर्मरूपी मैलों को (दग्ध्वा) भस्म करके (नित्यनिरञ्जनज्ञानमयाः जाताः) नित्य, निरंजन और ज्ञानमयी सिद्ध परमात्मा हुए हैं, (तान्) उन (परमात्मनः) सिद्धोंको (नत्वा) नमस्कार करके मैं परमात्मप्रकाशका व्याख्यान करता हूं। यह संक्षेप व्याख्यान किया। इसके बाद विशेष व्याख्यान करते हैं जैसे मेघ-पटलसे बाहर निकली हुई सूर्यकी किरणोंकी प्रभा प्रबल होती है, उसी तरह कर्मरूप मेघसमूहके विलय होवेपर अत्यंत निर्मल केवलज्ञानादि अनंतचतुष्टयको प्रगटतास्वरूप परमात्मा परिणत हुए हैं । अनन्तचतुष्टय अर्थात् अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, अनंतवीर्य, ये अनन्त चतुष्टय सब प्रकार अंगीकार करने योग्य हैं, तथा लोकालोकके प्रकाशनको समर्थ हैं.। जब सिद्धपरमेष्ठी अनंतचतुष्टयरूप परिणमे, तब कार्य-समयसार हुए। अन्तरात्म अवस्थामें कारण-समयसार थे । जब कार्यसमयसार हुए तब सिद्धपर्याय परिणतिकी प्रगटता रूपकर शुद्ध परमात्मा हुए। जैसे सोना अन्य धातुके मिलापसे रहित हुआ, अपने सोलहनानरूप प्रगट होता है, उसी तरह कर्म-कलंक रहित सिद्धपर्यायरूप परिणमे । तथा पंचास्तिकाय ग्रन्थमें भी कहा है-जो पर्यायाथिकनयकर 'अभूदपुवो. हवदि सिद्धो' अर्थात् जो पहले सिद्धपर्याय कभी नहीं पाई थी, वह कर्म-कलंकके विनाशसे पाई । यह पर्यायाथिकनयकी मुख्यतासे कथन है, और द्रव्याथिकनयकर शक्तिकी अपेक्षा यह जीव सदा ही शुद्ध बुद्ध (ज्ञान) स्वभाव तिष्ठता है। जैसे धातु पाषाणके मेलमें
भी शक्तिरूप सुवर्ण मौजूद ही है, क्योंकि सुवर्ण-शक्ति सुवर्णमें सदा ही रहती है, जब ... परवस्तुका संयोग दूर हो जाता है, तब वह व्यक्तिरूप होता है। सारांश यह है कि