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ऐसी नैयायिकों के श्रद्धा है । उनके सम्बोधने के लिये निरंजनपनेका वर्णन किया कि भावकर्म-द्रव्यकर्म-नोकर्मरूप अंजनका संसर्ग सिद्धोंके कभी नहीं होता । इसीलिये सिद्धों को निरंजन ऐसा विशेषण कहा है। अब सांख्यमती कहते हैं - " जैसे सोने की अवस्थामें सोते हुए पुरुषको बाह्य पदार्थों का ज्ञान नहीं होता, वैसे ही मुक्तिजीवोंको बाह्य पदार्थों का ज्ञान नहीं होता है ।" ऐसे जो सिद्धदशा में ज्ञानका अभाव मानते हैं, उनके प्रतिबोध करने के लिये तीन जगत् तोनकालवर्ती सब पदार्थोंका एक समय में ही जानना है, अर्थात् जिसमें समस्त लोकालोकके जानने की शक्ति है, ऐसे ज्ञायकतारूप केवलज्ञानके स्थापन करनेके लिये सिद्धों का ज्ञानमय विशेषण किया । वे भगवान् नित्य हैं, निरंजन हैं, और ज्ञानमय हैं, ऐसे सिद्धपरमात्माओंको नमस्कार करके ग्रन्थका व्याख्यान करता हूँ | यह नमस्कार शब्दरूप वचन द्रव्यनमस्कार है और केवलज्ञानादि अनंत गुणस्मरणरूप भावनमस्कार कहा जाता है । यह द्रव्य - भावरूप नमस्कार व्यव - हारनयकर साधक- दशामें कहा है, शुद्धनिश्चयनयकर वंद्य वंदक भाव नहीं है । ऐसे पदखंडनारूप शब्दार्थ कहा और नयविभागरूप कथनकर नयार्थ भी कहा, तथा बौद्ध, नैयायिक, सांख्यादि मतके कथन करनेसे मतार्थ कहा, इस प्रकार अनंतगुणात्मक सिद्धपरमेष्ठी संसारसे मुक्त हुए हैं, यह सिद्धान्तका अर्थ प्रसिद्ध ही है, और निरंजन ज्ञानमई परमात्माद्रव्य आदरने योग्य है, उपादेय है, यह भावार्थ है, इसी तरह शब्द नय, सत, आगम, भावार्थ व्याख्यान के अवसर पर सब जगह जान लेना ||१||
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अथ संसारसमुद्रोचरणोपायभूतं वीतरागनिर्विकल्पसमाधिपोतं समारुह्य ये शिवमयनिरुपमज्ञानमया भविष्यन्त्यग्रे तानहं नमस्करोमीत्यभिप्रायं मनसि धृत्वा ग्रन्थकारः सूत्रमाह, इत्यनेन क्रमेण पानिका स्वरूपं सर्वत्र ज्ञातव्यम्
ते वंद सिरि-सिद्धगण होसहि जे विश्रांत । सिवमय रिरुवम गाणमय परम- समाहि भजंत ||२||
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तान् वन्दे श्री सिद्धगणान् भविष्यन्ति येऽपि अनन्ताः ।
शिवमय निरुपमज्ञानमयाः परमसमाधि भजन्तः ||२||
अब संसार-समुद्रके तरनेका उपाय जो वीतराग निर्विकल्प समाधिरूप जहाज है, उसपर चढ़के जो आगामी कालमें कल्याणमय अनुपम ज्ञानमई होंगे,