Book Title: Panchastikay Parishilan
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 15
________________ १२ पञ्चास्तिकाय परिशीलन होंठ, कंठ, जीभ इत्यादि हिलते ही नहीं हैं, श्वाँस नहीं लेना पड़ती है ह्र ऐसी असंख्यप्रदेशों से वाणी निकलती है। जिसतरह लोक में सूर्य की पूजा दीपक से करते हैं, नदी की पूजा नदी के पानी की अंजलि से करते हैं; उसीप्रकार भगवान की वाणी की पूजा भी आचार्यदेव वाणी से करते हैं। इसतरह सरस्वती को नमस्कार करके मंगलाचरण किया।" सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि ह्र यद्यपि प्रत्येक भाषावर्गणारूप परिणमित हुए पुद्गल के परमाणु पूर्ण स्वतंत्र अपने-अपने स्वचतुष्टय की योग्यता से गाथारूप परिणमते हैं; तथापि जीवों की भली होनहार और आचार्य कुन्दकुन्ददेव के उस रूप हुए भावों से अत्यन्त निकट का घना निमित्त-नैमित्तिक संबंध है। अत: भले वाणी वाणी के कारण शब्दरूप परिणमित हुई है; फिर व्यवहार से ऐसा कहा जाता है कि ह्र "मैं कहता हूँ और तुम ध्यान से सुनो।” लेखक और वक्ता को जिनवाणी के प्रचार-प्रसार की पवित्र भावना भूमिकानुसार आये बिना नहीं रहती, उस निमित्तरूप वाणी के साथ भली होनहार वाले अनेक भव्यजीवों के नैमित्तिकरूप से तदनुसार परिणमन भी होता है तू ऐसा ही सहज निमित्त-नैमित्तिक संबंध होता है। ऐसा ज्ञानी जानते हैं; अत: विकल्पानुसार कार्य करते हुए भी उन्हें कर्तृत्व का अहंकार नहीं होता। गाथा ३ विगत गाथा में 'समय' अर्थात् पंचास्तिकाय का कथन करने की प्रतिज्ञा की। ज्ञातव्य है कि ह्न 'समय' शब्द के अनेक अर्थ हैं, 'समय' आत्मा को भी कहते हैं, परन्तु प्रस्तुत गाथा में भी 'समय' का अर्थ पंचास्तिकाय ही किया है। मूलगाथा इसप्रकार है ह्र समवाओ पंचण्हं समउ ति जिणुत्तमेहिं पण्णत्तं । सो चेव हवदि लोओ तत्तो अमिओ अलोओ खं ।।३।। (हरिगीत) पञ्चास्तिकाय समूह को ही समय जिनवर ने कहा। यह समय जिसमें वर्तता वह लोक शेष अलोक है||३|| पाँच अस्तिकाय के समभावपूर्वक अर्थात् राग-द्वेषरूप विकृति से रहित शाब्दिक निरूपण को अथवा पंचास्तिकाय के सम्यक्बोध को अथवा पाँचों द्रव्यों के समूह को जिनवरों ने 'समय' कहा है। इन पाँच अस्तिकाय के समूह जितना ही लोक है; उससे आगे अमाप अलोक है। इस गाथा के भाव को समयव्याख्या नामक टीका में आचार्य अमृतचन्द इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "समय शब्द को तीन रूप से कहा है ह्न शब्दरूप से, ज्ञानरूप से और अर्थरूप से। दूसरे शब्दों में कहें तो शब्दसमय, ज्ञानसमय और अर्थसमय ह्न ऐसे तीन प्रकार से समय' शब्द का अर्थ है तथा जिसमें ये पाँचों हैं, वह लोक है, शेष सब अलोक हैं। (१) 'पाँच अस्तिकाय का समवाद' अर्थात् मध्यस्थभाव से-रागद्वेष की विकृति से रहित पाँच अस्तिकाय का मौखिक या शास्त्रारूढ़ निरूपण 'शब्दसमय' है। (२) पंचास्तिकाय का सम्यक् अवाय अर्थात् मिथ्यादर्शन का नाश होने पर सम्यक्ज्ञान होना 'ज्ञानसमय' है। (15) १. प्रवचन प्रसाद : पंचास्तिकाय प्रवचन, पृष्ठ १७, प्रवचन का प्रारंभिक अंश

Loading...

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 ... 264