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पञ्चास्तिकाय परिशीलन मध्यलोक के इन्द्र अर्थात् चक्रवर्ती, ऊर्ध्वलोक के इन्द्र अर्थात् देवेन्द्र और अधोलोक के इन्द्र अर्थात् नागेन्द्र ह्र इसप्रकार तीन लोक के इन्द्र जिसकी वंदना तीनों काल में करते हैं; इसकारण जिनका नाम त्रिलोकपति के रूप में गाया है; सभी प्राणियों का हित करनेवाली मनोहारी अमृतमयी दिव्यवाणी के कारण जिनका ध्यान पुराणपुरुष के रूप में किया जाता है; संसारभ्रमण के हरने वाले, स्वकर्त्तव्य के कर्ता और अपार ज्ञान जिनमें सदा पाया जाता है; ऐसे शुद्धोपयोग के साधक जिनेन्द्र भगवान के चरणों में मस्तक नवाता हूँ। इसप्रकार नमस्कार करके कवि हीरानन्दजी निम्न दोहों में कहते हैं कि -
(दोहा) 'नमो जिनानं' यह वचन, दरव नमन करि जान । असद्भूत विवहार है, जानै परम सुजान ।।२१।। साधन साधि जुदानकौं, मानै एक बनाय ।
सो निहचै नय सुद्ध है, सुनत करम कट जायें ।।२२।। नमो जिनान वचन द्रव्य नमस्कार है तथा यह असद्भूत व्यवहारनय का कथन है - ऐसा ज्ञानी जानते हैं।
जिसमें साधन-साध्य को अभेद रूप से ग्रहण करते हैं वह शुद्ध निश्चय का विषय है, ऐसा श्रद्धापूर्वक सुनने एवं अनुभवन करने से कर्म कट जाते हैं।
इसप्रकार इस गाथा में मंगलाचरण के रूप में नमन करते हुए कहा है कि - जिनेन्द्र देव सौ इन्द्रों से वंदित हैं। उनकी वाणी हितकर, मधुर एवं विशद् हैं, निर्गल हैं उनमें अनन्तगुण वर्तते हैं। भाव नमस्कार इसप्रकार किया है।
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गाथा २ आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने प्रथम गाथा में मंगलाचरण किया। अब इस गाथा में श्रोताओं को सम्बोधित करते हुए एवं सर्वज्ञ भासित मुक्ति के हेतु समय को अर्थात् जिनशास्त्रों को नमस्कार करते हुए पंचास्तिकाय का स्वरूप कहने की प्रतिज्ञा करते हैं।
गाथा मूलतः इसप्रकार है ह्र समणमुहुग्गदमटुं चदुग्गदिणिवारणं सणिव्वाणं । एसो पणमिय सिरसा समयमिणं सुणह वोच्छामि ।।२।।
(हरिगीत) सर्वज्ञभाषित भवनिवारक मुक्ति के जो हेतु हैं। उस समय को नमकर कहूँ मैं ध्यान से उसको सुनो।।२।।
चतुर्गति का निवारण कराने वाले और निर्वाण की प्राप्ति कराने वाले महाश्रमण अर्थात् तीर्थंकरों के मुख से निकले हुये वचनों अर्थात् जिनवाणी को नमस्कार करके इस शास्त्र अर्थात् पंचास्तिकाय संग्रह का कथन करता हूँ। उसे तुम ध्यान से सुनो!
यहाँ आचार्य अमृतचन्द्र नेटीका में जोकहा है, उसका भाव इसप्रकार है
"हम शब्दसमय अर्थात् आगम को प्रणाम करके समयव्याख्या टीका लिखकर पंचास्तिकाय का कथन करेंगे; क्योंकि वह आप्त द्वारा उपदिष्ट होने से सफल है तथा महाश्रमण के मुख से निकला हुआ अर्थ समय अर्थात् ह्र जो वीतराग सर्वज्ञदेव के मुख से निकले हुए शब्द समय को सुनकर पंचास्तिकायरूप अर्थ समय को जानकर उसके अंतर्गत शुद्ध जीवास्तिकाय स्वरूप अर्थ में निर्विकल्प समाधि द्वारा स्थित रहता है; वह चार गति का निवारण करके स्वात्मोत्पन्न, अनाकुलता-लक्षण, अनन्त १. पंचास्तिकाय गाथा-२ की टीका एवं भावार्थ आ. अमृतचन्द्र, पृष्ठ-८
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