Book Title: Paia Subhasiya Sangaho
Author(s): Bhavyadarshanvijay
Publisher: Padmavijay Ganivar Jain Granthmala

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Page 50
________________ जइ विय संयं नरिंदो, परविसयगओ हवेज्ज एगागी / तह विय परिहवठाणं, पावइ लोए ठिई एसा // 429 // जह एक्कम्मि तरुवरे, वसिऊणं पक्खिणो पभायंमि / वच्चन्ति दसदिसाओ, एक्कम्मि कुडुम्बयम्मि तहजीवा // 430 / / न य गेहम्मि पलित्ते, वे खण्णइ सुतूरमाणेहिं / धाहाविए न दम्मइ, आसोच्चिय तक्खणं चेव // 431 // उत्तमपुरिसाणं खलु, संजोगो होइ उत्तमेहि समं / अहमाण मज्झिमाण य, सरिसो सरिसेहि वा होज्जा // 432 / / किं भूसणेहिं कीरइ, रूवं चिय होइ भूसणं निययं / कित्ती लच्छी य गुणा, कुडुम्बसहिया ठिया जस्स / / 433 // अइवल्लहं पि वीसरइ, माणुस्सं देसकालअन्तरि / वल्लीसमं हि पेम्मं, जं आसन्नं तर्हि चडइ // 434 // असणेण अइदंसणेण दिटूठे अणालवन्तेणं / माणेण पवसणेण य, पंचविहं झिज्जए पेम्मं // 435 // जइ माणो कीस पिओ, अहव पिओ कीस कीरए माणो / माणिणि दोवि गइन्दा, एकवखभे न बज्झन्ति // 436 // पुरीसे सच्चसमिद्धे, अलियपमुक्के सहावसंत्तुठे / तवधम्मनियमभइए, विसमा वि दसा समा होइ // 437 / / अप्पहिअं कायव्वं, जइ सकं परहियं पि कायव्वं / अप्पहियपरहियाणं, अप्पहियं चेव कायव्वं // 438 / / बालस्स मायमरणं, भज्जामरणं च जुव्वणारंभे / वुड्ढस्स पुत्तमरणं, तित्रिवि गरुआइ दुक्खाइ // 439 //

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