Book Title: Paia Subhasiya Sangaho
Author(s): Bhavyadarshanvijay
Publisher: Padmavijay Ganivar Jain Granthmala

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Page 49
________________ एरिसपत्तसुखेरो, विसुद्धलेसाजलेण संसित्ते / निहियं तु दबसस्सं, इहपरलोए अणंतफलं // 418 // को कुवलयाण गन्धं, करेइ महुरत्तणं च उच्छृणं / .. वरहत्थीण य लीलं विणयं च कुलप्पसूयाणं // 419 // तावच्चिय होइ सुहं, जाव न कीरइ पिओ जणो कोवि / पियसंगो जेण कओ, दुक्खाण समप्पिओ अप्पा // 420 // विणओ मूलं पुरिसत्तणस्स, मूलं सिरीए ववसाओ / धम्मो सुहाग मूलं, दप्पो मूलं विणासस्स // 421 // को चित्तेइ मयूर, गइ च को कुणइ रायहंसाणं / को कुवलयाण गंध, विणयं च कुलप्पसूयाणं // 422 / / बुद्धीऍ पवंचेण य, छलेण तह मंततंतजोएणं / पहणिज्जइ पडिवतखो, जस्स न नीईए सक्केज // 423 // जहा मसागिंधणमद्धदड्ढं, तहा जणो सीलकलंकिओ जो / कलंकपकाउ कुलाइहीला-णिबंधणाओ भव भीरुभावो // 424 // गरुलस्स किं व कीरइ, बहुएसु वि वायसेसु मिलिएसु / मयगंधमुब्वहंते, किं न हणइ केसरी हत्थी // 425 // रागेण व दोसेण व, जे पुरिसा अप्पयं विवायति / ते पावमोहियमई, भमंति संसारकंतारे // 426 // थेवो थेवो वि वरं, कायव्यो नाणसंगहो निच्चं / सरियाओ किं न पेच्छह, बिंदूहि समुद्दभूयाओ // 427 // समणा य बंभणा वि य, पसुइत्थी य बालयाबुड्ढा / . जइ वि हु कुणंति दोसं, तहा वि एए न तवा // 428 //

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