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भूमिका
नुमान, (३) परार्थानुमान, (४) हेतु दृष्टान्त, (५) अपोह और (६) जाति।
दिग्नागके पश्चात् परमारथ (४९८ ई० से ५६९ ई. तक) हुए। इन्होंने कुछ बौद्धग्रन्थोंका चीनी भाषामें अनुवाद किया। इन्होंने एक न्यायभाष्य भी लिखा था।
शंकरस्वामिन् ( लगभग ५५० ई०) आचार्य दिग्नागके शिष्य थे। कहा जाता है कि शंकरस्वामिन् और अन्य दश आचार्योके द्वारा न्यायशास्त्र दिग्नागसे शालिभद्र तक पहुंचा था। इन्होंने एक ग्रन्थ न्यायप्रवेशशास्त्र या न्यायप्रवेशतर्क शास्त्र नामका लिखा था। ___ धर्मगल ( लगभग ६०० से ६३५ ई. तक ) कांचीपुर ( वर्तमान कंजीवरम् ) के राजमंत्रीके ज्येष्ठ पुत्रथे । यह धर्मकीर्तिके गुरु थे। इन्होंने बाल्यावस्थामें ही वैरान्य ले लिया था। आरम्भमें यह नालन्द विश्वविद्यालयमें पढ़ने गये किन्तु पीछेसे यह उस विद्यालयके प्रधान बना दिये गये । यह योगाचार मतावलम्बी थे । इन्होंने आलम्बन प्रत्यय ध्यान शास्त्रव्याख्या, विद्यामात्र सिद्धिशास्त्र व्याख्या और शत-शास्त्र वैपुल्य व्याख्या आदि ग्रन्थ लिखे थे।
शालिभद्र (६३५ ई० ) बंगालके राजा समतटके, कुटुम्बके थे। ये ब्राह्मण थे। नालन्द विश्वविद्यालयमे यह धर्मपालके शिष्य थे। जिसके यह उनके पीछे प्रधान हो गये थे । चीनी यात्री हुएनसांग (सन् ६३५ ई०) इनका शिष्य था । शालिभद्र बड़े भारी विद्वान् और नैयायिक थे।
आचार्य धर्मकीर्ति (लगभग ६३५ से ६५०ई०तक) इनके विषयमें आगे विस्तारसे विचार किया जावेगा। . देवेन्द्रवोधि ( लगभग ६५० ई०) धर्मकीर्तिके समकालीन थे। इन्होंने प्रमाणवार्तिकपंजिका बनाई थी। कहा जाता है कि धर्मकीतिने अपने पुमागवार्तिकके ऊपर टीका लिखनेके योग्य देवेन्द्रबोधिको ही चुना । तदनुसार देवेन्द्रबोधिने टीका बनाकर धर्मकीर्तिको दिखलाई किन्तु उसने उसको धो डाली । देवेन्द्रबोधिने फिर बनाकर दिखलाई इसबार धर्मकीर्तिने उसको जला दी। किंतु तीसरीबार देखनेपर धर्मकीर्तिने उसको रहने दी। - शाक्यबोधि ( लगभग ६७५ ई०) ने जो कि देवेन्द्रबीधिका शिष्य था एक टीका प्रमाणवार्तिक पंजिका पर बनाई। जिसका नाम उन्होंने