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भूमिका
५ - न्यायबिन्दुटीका - आचार्य धर्मोत्तर (लगभग ८४७ ई०) कृत । यह पाठकोंके हाथों में विद्यमान है। यह भी न्यायबिन्दुके | ऊपर विस्तृत टीका है ।
८. न्यायबिन्दु बौद्धदर्शनके सिद्धान्त ।
raft न्यायबिन्दु विशुद्ध न्यायका ही ग्रन्थ है तथापि प्रसङ्ग यश कहीं २ आचार्यने उसमें ऐसे वाक्य भी लिखे हैं जिनसे बौद्ध सिद्धान्तोंकी बहुत कुछ झलक मिलती है। हमने ऐसे वाक्योंको यथाशक्ति प्रयत्न करके न्यायबिन्दुमें से निकाला है ओर उनके अन्दर से हमारी सम्मतिमें जो दार्शनिक सिद्धान्त निकाले जा सकते हैं उन को नीचे दिया है
( १ ) जहाँ सांख्य सत्से सत् की उत्पत्ति मानता है वहाँ बौद्ध असत्की उत्पत्ति और सत्का निरन्वय विनाश मानता है । जैसा कि कहा है
'परस्य चासत उत्पाद उत्पत्तिमत्त्वम् । सतश्च निरन्वयो विनाशो ऽनित्यत्वं सिद्धम्' | ( न्या० पृ० ९१ पं० ३ )
( २ ) बौद्धोंने विज्ञान, इन्द्रिय और आयुके निरोधको ही मरण माना है । जैसा कि धर्मकीर्तिने कहा है
मरणस्यानेनाभ्युपगमात् ।
( न्या० पृ० ८९ पं० १३ )
(३) बौद्धदर्शन वृक्षोंमं विज्ञान आदिका सद्भाव नहीं मानता । अतएव मरने या जीनेका उनमें विकल्प ही नहीं है
'तस्य च विज्ञानादिनिरोधात्मकस्य तरुष्वसंभवात्' । ( न्या० पृ० ९० पं० ३ )
( ४ ) बौद्ध सुख आदिको अचेतन मानते हैं। जैसा कि धर्मकीर्ति के निम्नलिखित वाक्य से प्रगट होता है
'विज्ञानेन्द्रियायुर्निरोधलक्षणस्य
'अचेतनाः सुखादय इति साध्य उत्पत्तिमत्त्वमनित्यत्वं वा सांख्यस्य स्वयं वादिनोऽसिद्धम्' । ( न्या० पृ० ९० पं० १५, १६ )
( ५ ) बौद्ध आत्माको नहीं मानता। जैसा कि टीकामें कहा गया है'तदिह बौद्धस्यात्मैव न सिद्धः । ( पृ० ९२ पं० २२ ) तथा 'बौद्धनोक्तं नास्त्यामा' । ( पृ ८३ पं० २ )
( ६ ) पीछे बतला दिया है कि बौद्ध दर्शन विज्ञान, इन्द्रिय और आयुके निरोधको मरण मानता है किन्तु आत्माको नहीं मानता।