Book Title: Nyayabindu
Author(s): Dharmottaracharya
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Granthmala

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Page 198
________________ न्यायविन्दु - प्रतिषेधसिद्धिपि यथोक्ताया एवानुपलब्धेः । सति वस्तुनि तस्या असंभवात् । प्रतिषेध व्यवहार की सिद्धि भी पूर्वोक्त दृश्यानुपलब्धि से ही होती है। [क्योंकि प्रतिषेध्य ] वस्तुके विद्यमान होनेपर दृश्यानुपलब्धि नहीं हो सकती। अन्यथा चानुपलब्धिलक्षणप्राप्तेषु देशकालस्वभावविप्रः कृष्टेष्वात्मप्रत्यक्षनिवृत्तेरभावनिश्चयाभावात् । अनुपलब्धिलक्षणप्राप्त ( जिसकी उपलब्धिका कोई कारणविशेष उपस्थित नहीं है ) देशकालस्वभावविप्रकृष्ट पदार्थोंका आत्मप्रत्यक्ष न हो सकनेसे. उनका अभाव नहीं कह सकते। (देशविप्रकृष्ट-जैसे. भारतसे अमेरिका । कालविप्रकृष्ट-जैसे-भूतकालमें रामचन्द्र । स्व. भावविप्रकृष्ट-जैसे-मदारीका अपने मुखमें से अग्नि निकालना) [अदृश्यानुपलब्धि वस्तुके विद्यमान होते हुए भी ही होसकती है। जिसप्रकार अन्धेको सब वस्तुएं अदृश्य होनेसे अनुपलब्ध हैं। अतएव प्रतिषेध सिद्धि अदृश्यानुपलब्धिसे न होकर रश्यानुपलब्धिसे ही होती है। अमृढस्मृतिसंस्कारास्यातीतस्य वर्तमानस्य च प्रतिपत्त. प्रत्यक्षस्य निवृत्तिरभावव्यवहारसाधनी । तस्या एवाभावनिश्चयात् । यह दृश्यानु'लब्धि जानने वालेके पूर्व अनुभूतप्रत्यक्ष ( जिस प्रत्यक्ष शानका उसके द्वारा पहिले अनुभव किया जा चुका है) और वर्तमानकालके प्रत्यक्षकी निवृत्तिके अभावके व्यवहारको बत. लाने वाली है। क्योंकि अतीत और वर्तमानकालीन अनुपलब्धि ही अभावको निश्चय करती है। सा च प्रयोगभेदादेकादशप्रकारा। अनुपलब्धि प्रयोगके भेदसे ग्यारह प्रकारकी होती हैस्वभावानुपलब्धिर्यथा । नात्र धूमः उपलब्धि लक्षणमासस्यानुपलब्धेरिति ।

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