Book Title: Nyayabindu
Author(s): Dharmottaracharya
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Granthmala

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Page 218
________________ २८ भाषाटीका सहित उसमें अव्यभिचारी हो वह अपने साध्यसे व्यभिचरित न होनेसे विरुडाव्यभिचारी है।) __ अनुमानविषयेऽसंभवात् । ___ (उत्तर ) अनुमान के विषय ( रूप्य ) में असम्भव होनेसे उसका कथन यहाँ नहीं किया गया। न हि संभवोऽस्ति कार्यस्वभावयोरुक्तलक्षणयोरनुपल. म्भस्य च विरुद्धतायाः । न चान्योऽव्यभिचारी। . __ क्योंकि उक्त लक्षण (त्रैरूप्य) वाले कार्य, स्वभाव और अनुपलम्भ की विरुद्धता सम्भव नहीं है । और [ उनसे भिन्न ] अन्य कोई अव्यभिचारी भी नहीं है, [ अतएव उन्हीमें हेतुता है।] [ तब आचार्य दिग्नागने इस हेतुदोषको किस स्थल पर कहा है ? इसके लिये कहते हैं-] तस्मादवस्तुदर्शनवलप्रयत्तमागमाश्रयमनुमाश्रित्य तदर्थवि. चारेषु विरुद्धाव्यभिचारी माधनदोष उक्तः । अवस्तु के दर्शन के बलसे प्रवृत्त हुए आगमाश्रय अनुमानका आश्रय लेकर उसके अर्थके विचारोंमें विरुद्धाव्यभिचारी साधन दोष कहा है। शास्त्रकागणामर्थेषु भ्रान्त्या विपरीतस्य स्वभावोपसंहारसंभवात् । क्योंकि अर्थ में भ्रान्ति हो जानेसे शास्त्रकारोंका विपरीतको स्वभाव कह देना सम्भव है। न ह्यस्य सम्भवो यथावस्थित वस्तुस्थितिष्वात्मकार्येषूपलम्भेषु । यह यथावस्थितवस्तुकी स्थिति और आत्मकार्यों के उपलम्भ में सम्भव नहीं है। तत्रोदाहरणं यत्सर्वदेशावस्थितैः स्वसम्बन्धिभिः सम्बध्यते तत्सर्वगतं यथाकाशमभिसंबध्यते सर्वदेशावस्थितैः स्वसम्बन्धिभिर्युगपत्सामान्यमिति । - इसका उदाहरण-जो सर्वदेशावस्थित (सब स्थानों में रहने वाले) अपने सम्बन्धियों से सम्बन्धित होता है वह सर्वगत है। जैसेआकाश सर्वदेशावस्थित स्वसम्बन्धियों से एक साथ सामान्य हो सम्बन्धित होता है।

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