________________
भाषाटीका सहित मभेदेन पुनर्विशेषेण कार्यस्वभावयोर्जन्मत
मात्रानुबन्धौ दर्शनीयावुक्तौ । क्योंकि हेतु का सपक्ष में ही रहना और सब विपक्षोंका उससे शुन्य रहना के दोनों रूप कह दिये । विशेष अभेदसे कार्य जन्म [ ज्ञातव्य ] और स्वभाव का तन्मात्रानुबन्ध दर्शनीय कह दिया। तच्च दर्शयता यत्र धृमस्तत्राग्निरससग्नौ न कचि
द्धृमो यथा महानसेतरयोः। . . __ उसको दिखलाते हुए 'जहाँ धूम होता है वहाँ अग्नि होती है। अग्नि के अभाव में धूम भी नहीं होता । जैसे पाकशाला और तालाब में।' यत्र कृतकत्वं तत्रानित्यत्वमनित्यत्वाभावे कृतकत्वासंभवो
यथा घटा काशयोरिति दर्शनीयम् । जहाँ कृतकत्व होता है वहाँ अनित्यत्व होता है। अनित्यत्व के अभाव में कृतकत्व असम्भव है। जैसे घट और आकाश में। यह सब देखना चाहिए। न ह्यन्यथा सपक्षविपक्षयोः सदसत्त्वे यथोक्त.
प्रकारे शक्ये दर्शयितुम् । तत्कार्यतानियमः कार्यलिङ्गस्य स्वभावलिङ्गस्य
च स्वभावेन व्याप्तिः । क्योंकि अन्यथा यथोक्तप्रकार के सपक्ष और विपक्ष में सत्व और असत्व और कार्य लिङ्गका तत्कार्यतानियम और स्वभाव लिङ्ग की स्वभाव से व्याप्ति नहीं दिखलायी जा सकती।
अस्मिंश्चार्थे दर्शिते दर्शित एव दृष्टान्तो भवति । इस अर्थ के समझ जाने पर दृष्टान्त समझ में आ ही जाता है।
एतावन्मात्ररूपत्वात्तस्येति । क्योंकि वह केवल उतना ही है।
एतेनैव दृष्टान्तदोषा अपि निरम्ता भवन्ति । इससे ही दृष्टान्तदोषों का भी निराकरण हो जाता है। यथा-नित्यः शब्दोऽमूर्तत्वात् , कर्मवत्परमाणुउद्घटवदिति । जैसे-शब्द नित्य है, क्योंकि वह कर्म, परमाणु, और घटके समा.