Book Title: Nyayabindu
Author(s): Dharmottaracharya
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Granthmala

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Page 212
________________ भाषाटीका सहित यथा वाष्पादिभावेन संदिह्यमानो भूतसंघातोऽग्रिसिद्धावुप. दिश्यमानः संदिग्धासिद्धः। जैसे-वाप्प आदि भावसे सन्देह कियो हुआ पृथ्वी आदिका समूह अग्निकी सिद्धिके लिये ग्रहण किये जानेपर संदिग्धासिद्ध है। (कहीं दूरपर धूल आदिको उड़ती हुई देखकर उसको धूम समझकर उससे अग्निको सिद्ध करने लगनेसे अभिप्राय है।) [आश्रयासिद्धका उदाहरण - यथेह निकुञ्ज मयूरः केकायितादिति । तदापातदेशविभ्रमे । जैसे-इस निकुञ्जमें मोर है। क्योंकि इधरसे ही मोरका शब्द आ रहा है। उस शब्दके आनेके स्थानमें विभ्रम हो सकनेसे यह आश्रयणासिद्ध है। धर्यसिद्धावप्यसिद्धो यथा सर्वगत आत्मेति साध्ये सर्वत्रोपलभमानगुणत्वम् । धर्मीके सिद्ध होनेपर भी असिद्ध जैसे-'आत्मा सर्वगत ( सर्वत्रव्याप्त ) है' इस साध्यमें सर्वत्र उपलब्धहोनेका गुण असिद्ध है। तथैकम्य रूपस्यासपक्षेऽसत्वस्यासिद्धावनैकान्तिको हेत्वाभासः । तथा एकरूप ( असपक्षमें असत्त्व ) की असिद्धिमें अनैकान्तिक हेत्वाभास होता है। __यथा शब्दस्यानियत्वादिक धर्मे साध्ये प्रमेयत्वादिको धर्मः सपक्षविपक्षयोः। . जैसे-शब्दके अनित्यत्व आदि धर्मके साध्यमें प्रमेयत्व आदि धर्म सपक्ष और विपक्ष दोनोंमें रहते हैं। सर्वत्रैकदेशे वा वर्तमानस्तथास्यैव रूपस्य संदेहेऽप्यनैकान्तिक एन । ___ अथवा सर्वत्र या एकदेशमें रहने वाले इसी रूप ( असपक्षमें असत्त्व ) के संदेहमें भी अनैकान्तिक ही है। १. पी० सं० का 'सत्वस्य' पाठ अशुद्ध है।

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