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न्यायबिन्दु
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यथाऽमज्ञः कश्चिद्विवक्षितः पुरुषो रागादिमान्वेति साध्ये वक्तृत्वादिको धर्मः संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकः । सर्वत्रैकदेशे वा सर्वज्ञो वक्ता नोपलभ्यते इति ।
जैसे - 'कोई विवक्षित पुरुष सर्वज्ञ अथवा रागादिमान् है' इस साध्य वक्तृत्व आदिधर्म संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिवाले हैं । [ क्योंकि ] सर्वज्ञवक्ता सर्वत्र अथवा एकदेशमें कहीं भी उपलब्ध नहीं है । एवं प्रकारस्यानुपलम्भस्यादृश्यात्मविषयत्वेन संदेहे हेतुत्वाद | क्योंकि अदृश्यात्मविषय वाला ( जिसका विषय अदृश्यात्मा है ) अनुपलम्भ संदेहमें कारण है । असर्वज्ञविपर्ययाद्वक्तृत्वादेव्यविचिः संदिग्धा । वक्तृत्वसर्वज्ञत्वयोर्विरोधाभावाच्च ।
सर्वज्ञका विपर्यय होनेसे वक्तृत्व आदिकी व्यावृत्ति संदिग्ध है [ निश्चय नहीं है । ] क्योंकि सर्वज्ञत्व और वक्तृत्वमें विरोधाभाव भी है।
[ व्याप्तिमान् व्यतिरेकको बतलाते हैं- ]
यः सर्वज्ञः स वक्ता न भवतीत्यदर्शनेऽपि व्यतिरेकी न सिध्यति, सन्देहात् ।
जो सर्वज्ञ होता है वह वक्ता नहीं होता । इस प्रकार सर्वज्ञवक्ता के न देखे जाने पर भी व्यतिरेक सिद्ध नहीं होता । क्योंकि उसमें सन्देह है।
द्विविधो हि पदार्थानां विरोधः ।
पदार्थो का विरोध दो ही प्रकारका होता है । [ जिनमेंसे प्रथम विरोध दिखलाया जाता है ]
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अविकलकारणस्य भवतोऽन्यभावः ।
अविकल ( सम्पूर्ण ) कारणवाले । जिसके सब कारण उपस्थित हो ) विद्यमान पदार्थका अन्यभाव होना ( विद्यमानसे अन्यभाव अर्थात् अभाव होना । )
अभावाद्विरोधगतिः ।
१. पी० [सं० में 'संदेहात् ' के पश्चात् विरामचिन्ह न देकर उसकी अगले वाक्य में सन्धि करदी है, जिससे उसको अर्थ कुछ नहीं बैठता ।