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न्यायविन्दु
उपलब्धिलक्षणमाप्तिरुपलम्भप्रत्ययान्तरसाकल्प
. स्वभावविशेषश्च । उपलब्धिलक्षणप्राप्ति उपलम्भप्रत्ययान्तरसाकल्य और स्वभाव. विशेष [ यह तीनों एकही हैं।] ( पीछे उपलब्धिके चार प्रत्यय बत. ला दिये हैं। यहाँ प्रत्यान्तर शब्द आलम्बनप्रत्ययके अतिरिक्त अन्य प्रत्ययोंका वाचक है । साकल्य सम्पूर्णताको कहते हैं। उपलभ्भके प्रत्ययान्तरोंकी एकत्रित सम्पूर्णताको उपलम्भप्रत्ययान्तरसाकल्य कहते हैं।) यः स्वभावः सत्स्वन्येषूपलम्भप्रत्ययेषु यत्प्रत्यक्ष
एव भवति स स्वभावः। [आलम्बनप्रत्ययके अतिरिक्त शेष उपलम्भप्रत्ययोंके रहते हुए जो स्वभावसे प्रत्यक्ष होता है वह स्वभाव है । ( यह स्वभाव विशे. षकी परिभाषा है।) स्वभावः स्वसत्तामात्रभाविनि साध्यधर्म हेतुः ।
यथा-वृक्षोऽयं शिंशपात्वादिति । [जो पदार्थ अपने हेतुके अस्तित्वकी अपेक्षाकरके विद्यमान होता है और हेतुसत्तासे भिन्न अन्य किसी हेतुकी अपेक्षा नहीं करता वह स्वसत्तामात्रभावी साध्य है। ] उस स्वसत्तामात्रभावी सा. ध्यधर्ममें जो हेतु है वह स्वभाव हेतु है। जैसे-यह वृक्ष है, क्योंकि यह शीशम है ।
कार्य पथामिरत्र धूमादिति । कार्यका उदाहरणजैसे-यहाँपर अग्नि है, क्योंकि यहाँ धूम है। __अत्र द्वौ वस्तुसाधनों, एकः प्रतिषेधहेतुः । इन तीन हेतुओंमें (अनुपलब्धि, स्वभाव और कार्यमें) से दो हेतु ( स्वभाव और कार्य ) वस्तुकी विधिको बतलाते हैं । और एक (अ. नुपलब्धि ) प्रतिषेधको बतलाता है।
स्वभावप्रतिबन्धे हि ससर्थोऽर्थ गपयेत् । स्वभावप्रतिबन्ध ( स्वभावसे एक स्थानमें नियत होना ) होने
१. पूर्व छची पुस्तक में विराम चिन्ह '-साधन' के पश्चात है । 'प्रनिषेधहेतुः' के पश्चात् कोई चिन्ह न देकर उसे अगले वाक्य में मिला दिया है, जिससे अर्थ बिलकुल गड़बड़ा जाता है।